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________________ आगम विषय कोश - २ कर, प्रमार्जन कर पूर्ण प्रासुक शय्या-संस्तारक बिछाए । शय्यासंस्तारक पर आरूढ़ होने से पहले ही सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग का तथा पैरों का पुनः पुनः प्रमार्जन कर तत्पश्चात् संयमपूर्वक उस पर बैठकर, संयमपूर्वक सोए। सोता हुआ एक-दूसरे के हाथ से हाथ, पैर से पैर और शरीर से शरीर को न सटाए | rous fariथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए । सेज्जासंथारए पडिग्गाहित्तए ॥ ''अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए ॥ (क ३/१८-२० ) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी यथारालिक (संयमपर्यायज्येष्ठ के) क्रम से वस्त्र और शय्या-संस्तारक ग्रहण करें। वे यथारालिक क्रम कृतिकर्म करें। १६. पृथक् वसति : आलोचना आदि की विधि वसुं पि वसंताणं, दोणि वि आवासगा सह गुरूहिं । दूरे पोरिसिभंगे, घ विगडेंति ॥ गीतसहाया उगता, आलोयण तस्स अंतियं गुरुणं । अगडा पुण पत्तेयं, आलोएंती गुरुसगासे ॥ एंताण य जंताण य, पोरिसिभंगो ततो गुरु वयंती थेरे अजंगमम्मि उ, मज्झहे वावि आलोए ॥ (व्यभा २७३०-२७३२) } संकीर्ण वसति के कारण पृथक् वसति में रहने वाले अगीतार्थ साधु प्रतिदिन प्राभातिक और वैकालिक आवश्यक प्रतिक्रमण गुरु के साथ करते हैं । वे भिक्षाचर्या से लौटकर आचार्य के पास आलोचना करते हैं। यदि अलग वसति सौ हाथ दूर हो तो चतुर्थ पौरुषी में गुरु के पास आलोचना कर वैकालिक आवश्यक अपनी वसति में करते हैं और प्रातः कालीन आवश्यक भी वहीं कर फिर गुरु के पास आकर प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं। यदि वसति सुदूर हो, गुरु के पास आने में सूत्र - अर्थ पौरुषी वेला अतिक्रांत होती हो तो उद्घाटा (तृतीय) पौरुषी में गुरु के पास आकर आलोचना और प्रत्याख्यान करते हैं। सुदूर वसति में यदि कोई गीतार्थ सहायक हो तो सब उसके पास आलोचना करते हैं। वह गीतार्थ उद्घाटा पौरुषी में गुरु के पास आकर सारी बात निवेदन करता है। यदि कोई गीतार्थ सहायक Jain Education International स्थविरकल्प न हो तो उद्घाटा पौरुषी में सब गुरु के पास आकर आलोचना करते हैं। यदि वसति इतनी अधिक दूर हो कि उद्घाटा पौरुषी काल में, आने-जाने में पौरुषी भग्न होती हो तो गुरु स्वयं इन अगीतार्थ शिष्यों के पास जाते हैं। यदि गुरु स्थविर या चलने में असमर्थ हैं तो अगीतार्थ मध्याह्न में गुरु के पास आकर आलोचना करते हैं । ६३७ १७. उपधि- प्रतिलेखन का काल सूरुग्गए जिणाणं पडिलेहणियाऍ आढवणकालो । थेराणऽणुग्गयम्मी, ओवहिणा सो तुलेयव्वो ॥ यथाऽऽवश्यके कृते एकद्वित्रिश्लोकस्तुतित्रये गृहीते एकादशभिः प्रतिलेखितैरादित्य उत्तिष्ठते स प्रारम्भकालः प्रतिलेखनिकायाः । कतरे पुनरेकादश ? पंच अहाजातानि, तिन्नि कप्पा, तेसिं एगो उन्निओ दो सुत्तिया, संथारपट्टओ, उत्तरपट्टओ, दंडओ। (बृभा १६६१ चू) जिनकल्पी के सूर्य उदय होने के बाद प्रतिलेखना का प्रारंभ काल है। स्थविरकल्पी के सूर्य उदय से पहले ही प्रतिलेखना काल प्रारम्भ हो जाता है। प्रतिलेखनीय उपधि के आधार पर प्रतिलेखना के काल का माप होता है। आवश्यक करने के बाद एक-दो-तीन श्लोक प्रमाण तीन स्तुति सम्पन्न की जाती है, उसके बाद ग्यारह उपधि की प्रतिलेखना के पश्चात् सूर्य उदय हो जाए, वह काल प्रतिलेखना का प्रारम्भ काल है। पांच यथाजात ( मुखवस्त्र, रजोहरण, दो निषद्याएं, चोलपट्ट), तीन उत्तरीय - एक ऊनी और दो सूती, संस्तारकपट्ट, उत्तरपट्ट और दंड - यह ग्यारह प्रकार की उपधि है । (दसविध उपधि का उल्लेख भी है। द्र श्रीआको १ कालविज्ञान) १८. स्थविर - अवस्थिति : क्षेत्र आदि उन्नीस द्वार खित्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए । कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य ॥ पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने उ नत्थि पच्छित्तं । कारण पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए । (बृभा १६३४, १६३५ ) स्थविरकल्प की स्थिति आदि के उन्नीस द्वार हैं - १. क्षेत्र २. काल ३. चारित्र ४. तीर्थ ५. पर्याय ६. आगम ७. वेद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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