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________________ आगम विषय कोश - २ द्वारा संयम को उद्योतित करते हैं, शिष्यों को ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निष्पन्न करते हैं, इस निष्पादकता के द्वारा ज्ञान आदि की परम्परा को अविच्छिन्न रखते हैं, इस प्रकार के स्थविरकल्पिक होते हैं। जब उनका जंघाबल क्षीण हो जाता है और आयु दीर्घ होती है तो वे वृद्धावास में रहते हैं। वे एक क्षेत्र में रहते हुए भी कलातिक्रांत शय्या, औद्देशिक आहार आदि दोषों से मुक्त रहते हैं। कल्प आदि सूत्रों में जिनकल्पिक आदि गच्छनिर्गत मुनियों की जो सामाचारी वर्णित है, उसे छोड़कर शेष सामाचारी उत्सर्ग और अपवाद-इन दोनों पदों से युक्त है - गच्छगत मुनि उत्सर्ग विधि और अपवाद विधि-दोनों का प्रयोग करते हैं, यह स्थविरकल्पी की स्थिति - सामाचारी है। २. स्थविरकल्पी गच्छवासी : आचार्य आदि ..... आयरिय उवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य ॥ स्थविरा: गच्छवासिनः ' ''गच्छ्वासिनस्तावत् पञ्चविधाः । (बृभा १४४७ वृ) स्थविरकल्पी गच्छवासी होते हैं। उनके पांच प्रकार हैं१. आचार्य २. उपाध्याय ३. भिक्षु ४. स्थविर ५. क्षुल्लक । आयरिय वसभ भिक्खू थेरो खुड्डो य । (निभा २६२४ की चू) गच्छ में पांच प्रकार के श्रमण हैं- आचार्य, वृषभ (उपाध्याय / अभिषेक), भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक | ० श्रमणीवर्ग : प्रवर्तिनी, अभिषेका..... पवत्तिणि अभिसेगपत्ता, थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य 'प्रवर्त्तिनी' सकलसाध्वीनां नायिका 'अभिषेकप्राप्ता' प्रवर्त्तिनीपदयोग्या | (बृभा ४३३९ वृ) पंच संजतीओ इमा - खुड्डी, थेरी, भिक्खुणी, अभिसेगी, पवत्तिणी । (निभा ५३३२ की चू) निर्ग्रन्थीवर्गेऽपि पञ्च पदानि तद्यथा- प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका च । तत्र गणिनी प्रवर्तिनी । (बृभा ६१११ की वृ) गच्छ में साध्वियों के पांच पद हैंप्रवर्तिनी - श्रमणीवर्ग का नेतृत्व करने वाली । ० ६२९ Jain Education International अभिषेका- प्रवर्तिनीपद के योग्य । ० स्थविरा - वृद्धा | भिक्षुणी-तरुणी या प्रौढा साध्वी । क्षुल्लिका - बाल या शैक्ष साध्वी । ० ० o स्थविरकल्प ० गणधर : श्रमणीवर्ग-व्यवस्थापक पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज्ज ओय-तेयस्सी । संगहुवग्गहकुसले, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई ॥ ....धर्मः - श्रुत - चारित्ररूपो यस्य दृढो द्रव्यक्षेत्राद्यापदुदयेऽपि निश्चलः संविग्नो संसारभयोद्विग्नः'' अवद्यभीरुः । .....संग्रहः - द्रव्यतो वस्त्रादिभिर्भावतः सूत्रार्थाभ्याम्, उपग्रहः - द्रव्यत औषधा-दिभिर्भावतो ज्ञानादिभिः कुशलः 'सूत्रार्थविद' गीतार्थः । एवंविधः 'गणाधिपतिः' आर्यिकाणां गणधरः स्थापनीयः । (बृभा २०५० वृ) • गणधर की अर्हता - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म उसे अभीष्ट होते हैं । द्रव्य, क्षेत्र आदि संबंधी आपदाओं के उदयकाल में भी वह धर्म में सदृढ़ तथा जन्ममरण के भय से उद्विग्न और पापभीरु है। वह ओजस्वी (प्रमाणोपेत शरीर वाला), तेजस्वी - दीप्तिमान तथा संग्रह-उपग्रह में कुशल होता है- वस्त्र आदि उपकरणों, औषध आदि द्रव्यों तथा सूत्र - अर्थ - श्रुतज्ञान प्रदान द्वारा साध्वियों का सहयोग करने में दक्ष होता है । वह स्वयं सूत्र और अर्थ का वेत्ता - गीतार्थ होता है - इस प्रकार के मुनि को साध्वियों का गणधर स्थापित करना चाहिए। खित्तस्स उ पडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुव्वीए । किं वच्चई गणहरो, जो चरई सो तणं वहइ ॥ निप्पच्चवाय संबंधि भाविए गणहरऽप्पबिइ-तइओ । नेइ भए पुण सत्थेण सद्धि कयकरणसहितो वा ॥ ....एवं यो निर्ग्रन्थीगणस्याधिपत्यमनुभवति, स एव सर्वमपि तच्चिन्ताभारमुद्वहति । ( बृभा २०५२, २०७० वृ) ० गणधर का दायित्व - वह साध्वियों के प्रवासयोग्य क्षेत्र की सूत्रोक्त परिपाटी से प्रतिलेखना करता है। क्षेत्रप्रतिलेखना के लिए गणधर स्वयं क्यों जाता है ? गुरु कहते हैं- जो बैल आदि चारि चरता है, वही तृणभार को वहन करता है। इसी प्रकार जो साधु श्रमणीवर्ग के आधिपत्य का अनुभव करता है, वही उसके सभी प्रकार के चिन्ताभार को वहन करता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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