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________________ अनशन आगम विषय कोश-२ में एक सहज उभरने वाले प्रश्न का समाधान किया है। यहां वालच्छ-भल्ल विस विसूइकएँ आयंक"। पंडितमरण के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। कोई मुनि अनशन के ऊसासगद्ध रज्जू ..."""॥ बिना मरता है, क्या उसका मरण पंडितमरण नहीं कहलाएगा? (व्यभा ४३८१, ४३८२) किन्तु वह यहां विवक्षित नहीं है। यहां प्रायोपगमन और प्रत्येक अनशन के दो प्रकार हैं-आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी। भक्तप्रत्याख्यान के अर्थ वाला पंडितमरण विवक्षित है। श्रमण ० आनुपूर्वी-प्रव्रज्या, शिक्षापद यावत् गण अव्यवच्छित्ति पर्यंत महावीर के अंतेवासी शिष्य सर्वानुभूति मुनि और सुनक्षत्र पदों का क्रमशः अनुशीलन करते हुए अनशन करना। . मुनि ने अनशन के बिना ही पंडितमरण का वरण कर आराधक ० अनानुपूर्वी-अर्थग्रहण आदि सब पदों का अनुपालन किए पद प्राप्त किया।-भ २/४९ का भाष्य बिना अनशन करना। श्रीमज्जयाचार्य ने लिखा है इन दोनों के दो-दो प्रकार हैंइंगितमरणज तेह, विशेष भतपचखाण नों। ० निर्व्याघात-नीरोग और अक्षत देह वाले भिक्षु द्वारा किया तिण कारण थी जेह, तृतिय भेद न कह्यो इहां ॥ जाने वाला अनशन। मुख्य थकी ए ख्यात, द्वि प्रकार पंडितमरण। ० सव्याघात-व्याघात के दो प्रकार हैं-चिरघाती रोग, सद्योघाती अणसण बिन मुनिजात, मरै तिको न कह्यं इहां । रोग। रोग और आतंक से व्यथित व्यक्ति बालमरण करता है। सर्वानुभूति साध, सुनक्षत्र मुनिवर बलि। कोई व्यक्ति व्याल, रीछ, व्याघ्र आदि द्वारा उपद्रुत होने पर पाम्या पद आराध, अणसण बिण पंडितमरण॥ अथवा विष या विसूचिका आदि सद्योघाती रोगों से पीड़ित होने बलि अन्य मुनिराय, संथारा बिण जे मरे। पर संलेखना किए बिना ही भक्तप्रत्याख्यान करता है। यदि त पडितमरण सुहाय, तहना कथन इहा नथा। वह पंडितमरण स्वीकार करने में असमर्थ है, तो श्वासोच्छ्वास -भ जो १/३५/२८-३१) का निरोध करता है, वैहायस या गृध्रस्पृष्टमरण से मरता है, ५. आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी, निर्व्याघात-सव्याघात अनशन उसके उत्तम आराधना होती है-यह सव्याघात अनानुपूर्वी अनशन एक्केक्कं दुहा पडिवज्जइ-अहाणुपुवीए अणाणुपुव्वीए यापव्वज्जासिक्खापयादिकमेण मरणकालं पत्तस्स * प्रयोजनवश वैहायस-गृधपृष्ठमरण सम्मत आणुपुव्वी, अत्थग्गहणाईए पदे अप्फासेत्ता अणाणुपुव्वी। -द्र श्रीआको १ मरण पुणो एक्केक्कं दुविहं-णिव्वाघाइमं वाघाइमंच। (श्वेताम्बर साहित्य में गृध्रपृष्ठ की जो अर्थपरम्परा है, णिरुअस्स अक्खयदेहस्स णिव्वाधाइम, इतरस्स वाघाइमं। वह आलोच्य है। जैन साधना पद्धति की तपस्या के अनुकूल वाघाओ दुविहो-चिरघाइ आसुघाइया भी नहीं है। कारण उपस्थित होने पर तात्कालिक मरण के लिए वाघाइमं अणाणुपुवी-रोगातंकेहिं बाहिओ यह प्रयोग उपयोगी नहीं है। बालमरणं मरेज्जा, अत्थभल्लाईहि वा विरुंगिओ बहूहिं मरणमीमांसा- भगवान् महावीर ने जीवन और मृत्यु दोनों की आसुघाइकारणेहिं परक्कममकाऊणं भत्तं पच्चक्खावेइ। अनेकांत-दृष्टि से समीक्षा की थी। उनकी दृष्टि में व्यक्ति जैसे सो जइ पंडियमरणेण असत्तो ततो उस्सासं निरंभइ, जीने के लिए स्वतंत्र है, वैसे ही मरने के लिए भी स्वतंत्र है। वेहाणसं गिद्धपटुं वा पडिवज्जइ, तस्स उत्तमा आराहणा। इस स्वतंत्रता का उपयोग और दुरुपयोग दोनों ही हो सकते (निचू ३ १ २९३, २९९) हैं।... भावावेश में जो आत्महत्या की जाती है. वह बालमरण एमेव आणुपुव्वी, रोगायंकेहि नवरि अभिभूतो। है। वह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। पंडितमरण या समाधिमरण बालमरणं पि सिया हु, मरिज्ज व इमेहि हेतूहिं॥ मृत्यु की स्वतंत्रता का सदुपयोग है। इस मरण के पीछे कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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