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________________ साम्भोजिक एक बार एक रंक ने सुहस्ती के साधुओं को देखा और उनसे आहार मांगा। साधुओं ने कहा- हम अपने आचार्य सुहस्ती को पूछे बिना नहीं दे सकते। वह वहां पहुंच गया। आर्य सुहस्ती ने ज्ञानबल से देखा-यह प्रवचन प्रभावक होगा । उससे कहा- तुम दीक्षा लो तो भोजन दे सकते हैं। वह तैयार हो गया। सामायिक चारित्र स्वीकार किया, पर्याप्त भोजन किया, अजीर्ण हो गया, उसी रात्रि को मृत्यु हो गई । वह मरकर अव्यक्त सामायिक के कारण अंधकुमार (कुणाल) का पुत्र हुआ । चन्द्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार । बिंदुसार का पुत्र अशोक । अशोक का पुत्र कुणाल । कुणाल को बचपन से ही उज्जैनी का आधिपत्य दे दिया गया। कुणाल के घर में वह रंक पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। जन्म के बारह दिन बीतने पर उसका नाम सम्प्रति रखा गया। कालान्तर में विहरण करते हुए आर्य सुहस्ती और आर्यमहागिरि उज्जैनी पधारे। राजा सम्प्रति ने गवाक्ष से आर्य सुहस्ती को देखा, जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ । धर्म स्वीकार किया । परस्पर स्नेहानुराग हो गया। आर्यमहागिरि श्रीगृहआयतन में तथा आर्य सुहस्ती शिवगृह में ठहरे। सम्प्रति नृप ने नागरिकों से कहा- तुम साधुओं को पर्याप्त आहार आदि दो, मैं तुम्हें उसका मूल्य दूंगा। आर्य सुहस्ती के शिष्य राजपिण्ड ग्रहण करने लगे । शिष्यानुराग के कारण आचार्य ने निषेध नहीं किया। आर्यमहागिरि ने कहा- आर्य! राजपिण्ड ग्रहण क्यों कर रहे हो ? आर्य सुहस्ती ने कहा- जैसे राजा, वैसे प्रजा, यह राजपिण्ड नहीं है । आर्यमहागिरि ने कहा- 'आज से तुम मेरे लिए असांभोजिक हो । ' तत्पश्चात् आर्य सुहस्ती ने 'मिच्छामि दुक्कडं' कहते हुए पुन: राजपिण्ड ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की। ऐसा करने पर वे पुनः सांभोजिक हो गए। आर्यमहागिरि ने जाना-मनुष्य प्रायः मायाबहुल होते हैंऐसा सोचकर उन्होंने विसंभोज की व्यवस्था प्रस्थापित की। ओदरियमओ दारेसु, चउसुं पि महाणसे स कारेति । णिताऽऽणिते भोयण, पुच्छा सेसे अभुत्ते य॥ साहूण देह एवं अहं भे दाहामि तत्तियं मोल्लं । णेच्छंति घरे घेत्तुं समणा मम रायपिंडो त्ति ॥ एमेव तेल्लि - गोलिय- पूविय - मोरंड - दुस्सिए चेव । जं देह तस्स मोल्लं, दलामि पुच्छा य महागिरिणो ॥ Jain Education International ६१२ अज्जसुहत्थि ममत्ते, संभोग वीसुकरणं, आगम विषय कोश - २ अणुरायाधम्मतो जणो देती । तक्खण आउट्टणे नियत्ती ॥ (बृभा ३२७९ - ३२८२) 'मैं पूर्वभव में भिखारी था। वहां से मरकर मैं यहां उत्पन्न हुआ हूं - जातिस्मृति द्वारा इस वृत्तान्त को जानकर सम्प्रति ने नगर के चारों द्वारों पर सत्राकार महानसों का निर्माण करवाया, जहां आते-जाते दीन- अनाथ लोग भोजन करते थे । राजा ने रसोइयों से पूछा- दीन-अनाथों को देने के बाद जो भोजन शेष बचता है, उसका क्या करते हो ? वे बोले-अपने घर में उपभोग करते हैं। राजा ने कहा- आप शेष बचा भोजन साधुओं को दें, मैं उसका मूल्य चुका दूंगा। क्योंकि साधु मेरे घर से राजपिण्ड भिक्षा ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार राजा ने तैल, छाछ, अपूप, तिल आदि के मोदक और वस्त्र बेचने वालों से कहा- साधुओं को जिसकी अपेक्षा हो, आप दें, मैं उसका मूल्य चुका दूंगा। आचार्य महागिरि ने पृच्छा की—आर्य सुहस्ति ! आजकल यथेष्ट आहार, वस्त्र आदि प्राप्त हो रहे हैं, इसलिए जानकारी करो कि कहीं ये लोग राजा द्वारा प्रवर्तित तो नहीं हैं ? आर्य सुहस्ती यह जानते थे कि वे अनेषणीय आहार का भोग करते हैं किन्तु मोहवश उन्होंने कहा- सारे लोग राजधर्म से अनुवर्तित होने के कारण यथेप्सित आहार देते हैं। आचार्य महागिरि ने कहा- तुम बहुश्रुत होकर भी ऐसा कहते हो तो आज से तुम्हारा और मेरा संभोज - एकत्र भोजन आदि का व्यवहार नहीं होगा । सुहस्ती को अपनी भूल की अनुभूति हुई । वे तत्काल उससे निवृत्त होकर पुनः सांभोजिक हो गए। ८. संभोज - असंभोजविधि परीक्षा : कूप दृष्टांत एष च संभोगविधिः पूर्वस्मिन्नर्धभरते सर्वसंविग्नानामेकरूप आसीत् । पश्चात्कालदोषत इमे सांभो - गिका इमे त्वसांभोगका इति प्रवृत्तम् । "अविणट्ठे संभोगे सव्वे संभोइया आसी ॥ आगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणट्ट कूवे तो पुच्छा । कउ आणीयं उदगं, अविणट्ठे नासि सा पुच्छा ॥ (व्यभा २३५६, २३५७ वृ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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