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________________ आगम विषय कोश-२ ६०७ साम्भोजिक २, ३. उत्पादनशुद्ध-एषणाशुद्ध संभोज का भी यही क्रम है। १. शय्या, २. उपधि, ३. आहार, ४. शिष्यगण, ५. स्वाध्याय, ४. परिकर्मणा संभोज-कारण होने पर विधिपूर्वक परिकर्म करना ६. संयोगविधिविभक्त। शुद्ध है। परिकर्मणा का अर्थ है-उपधि को उचित प्रमाण में निकाचना संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले व्यवस्थित कर साधु के प्रायोग्य बना देना। गणधर सांभोजिक साधुओं को आहार आदि के लिए निमंत्रित किया जाता है। इसके साध्वियों के लिए उपधि का विधिपूर्वक परिकर्म कर साध्वीप्रायोग्य भी छह स्थान हैं-शय्या. उपधि आदि। बनाता है और साध्वियों को देता है-यह परिकर्मणा संभोज है। सोर ५. परिहरणा संभोज-सांभोजिक के साथ उपकरणों का विधिपूर्वक वंदिय पणमिय अंजलि, गुरुगालावे अभिग्गह णिसिज्जा। परिभोग करना परिहरणा संभोज है। संजोग-विधि-विभत्ता, अंजलिपगहे वि छट्ठाणा॥ ६.संयोग संभोज-उल्लिखित पांचों में से दो, तीन आदि का एक पणवीसजुतं पुण, होइ वंदण पणमितं तु मुद्धेणं। साथ प्रयोग करना । दो यावत् पांच पदों के संयोग से छब्बीस भंग हत्थुस्सेह णमो त्ति य, णिसज्जकरणं च तिण्हट्ठा। होते हैं। जैसे-सांभोजिक सांभोजिक के साथ उद्गम और उत्पादन एगेण वा दोहिं वा मउलिएहिं हत्थेहिं णिडालसंसे शुद्ध उपधि का उत्पादन करता है-यह प्रथम भंग है। ठितेहिं अंजली भण्णति। भत्ति-बहुमाण-णेह-भरितो ० श्रुत संभोज सरभसं "णमो क्खमासमणाणं" ति गुरुआलावो भण्णति। वायण पडिपुच्छण, पुच्छणा य परियट्टणा य कधणा य। तिण्हट्ठा सुत्तपोरिसीए अत्थपोरिसीए ततिया आलोयणासंजोग-विधि-विभत्ता, छट्ठाणा होंति उ सुतम्मि॥ णिमित्तं एयाणि सव्वाणि संभोइयाणं अण्णसंभोइयाण य (निभा २०९४) संविग्गाणं करेंतो सुद्धो। (निभा २१०३, २१०४ चू) श्रतसंभोज व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधओं अंजलिप्रग्रह संभोज व्यवस्था के अनुसार साधु संयमको श्रुत की वाचना दी जाती है। इसके छह प्रकार हैं पर्याय में ज्येष्ठ सांभोजिक को हाथ जोड़कर वन्दन करता है। १. वाचना ३. पृच्छा ५. अनुयोगकथा इसके छह स्थान हैं-१. वन्दना-कृतिकर्म के पच्चीस प्रकारों का २. प्रतिपृच्छा ४. परिवर्तना ६. संयोगविधि। प्रयोग करना। (द्र श्रीआको १ वन्दना) ० भक्तपान-दान-निकाचना-संभोज २. प्रणाम-सिर झुकाकर नमन करना। उग्गम उप्यायण एसणा य संभुंजणा णिसिरणा य। ३. अंजलि-एक अथवा दोनों हाथों को मुकुलित कर ललाट पर संजोग-विधि-विभत्ता, भत्ते पाणे वि छट्ठाणा॥ संस्थित कर प्रणाम करना। सेज्जोवहि आहारे, सीसगणाणुप्पदाण सज्झाए। ४. गुरुआलाप-भक्ति-बहुमान और स्नेह से संभृत होकर संजोग-विहि-विभत्ता, दवावणाए वि छट्ठाणा॥ उत्साहपूर्वक क्षमाश्रमण को नमन' ऐसा कहना। .."संजोग-विधि-विभत्ता, णिकायणाए वि छट्ठाणा॥ ५. निषद्याकरण-सूत्रपौरुषी, अर्थपौरुषी और आलोचना-इन तीन (निभा २०९७, २१०७, २११०) निमित्तों से गुरु के लिए अवश्य निषद्या करना। ० भक्तपानसंभोज-इस व्यवस्थानुसार समानकल्पी साधओं के ६. सयोग-उपर्युक्त विकल्पों के संयोग से निष्पन्न विकल्प। साथ एक मंडली में भोजन किया जाता है। इसके छह स्थान हैं सांभोजिक और अन्यसांभोजिक संविग्न साधुओं के प्रति १. उद्गमशुद्ध ३. एषणाशुद्ध ५. निसृजन इन सब पदों का प्रयोग करने वाला साधु शुद्ध है। २. उत्पादनशुद्ध ४. संभुंजन ६. संयोगविधि। अविरुद्धा सव्वपदा, उवस्सए होंति संजतीणं तु ।...... ० दानसंभोज-इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधु-उवस्सए पक्खियातिसु आगताण संजतीण साधुओं को शय्या आदि दी जाती है। इसके छह स्थान हैं- वंदणातिया पदा सव्वे अविरुद्धा"बाहिं भिक्खादिगताओ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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