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________________ आगम विषय कोश-२ ६०५ साम्भोजिक आधार पर इनके सदृश अन्य अनेक स्थान हो सकते हैं। जैसे १. संभोज का अर्थ द्रुतगति से चलना असमाधिस्थान है, वैसे ही जल्दी-जल्दी एकत्रभोजनं संभोगः। अहवा-समं भोगो संभोगो बोलना, त्वरता से प्रतिलेखन करना, जल्दबाजी में खाना आदि भी यथोक्तविधानेनेत्यर्थः। (नि ५/६४ की चू) असमाधिस्थान हैं। जितने असंयम के स्थान हैं, उतने ही असमाधि के स्थान हैं। वे असंख्य हैं। अथवा मिथ्यात्व, अविरति और सम्भोगः-एकमण्डल्यां समुद्देशनादिरूपः। अज्ञान-ये असमाधि के स्थान हैं। ___ (क ४/१९ की वृ) संभोज का अर्थ है-एक मण्डली में भोजन करना। अथवा साम्भोजिक-वह मुनि, जिसका अन्य मुनियों के साथ समान कल्प वाले साधुओं के साथ शास्त्रविहित विधिविधान के मंडली-व्यवस्था का संबंध हो। समसामाचारी वाला मुनि। अनुसार आहार, उपधि आदि उत्तरगुणों से संबंधित जो पारस्परिक १. सम्भोज का अर्थ व्यवहार की व्यवस्था है, वह संभोज है। २. सदृशकल्पी ही सांभोजिक (सांभोजिक-एक मंडली में भोजन करने वाला। यह ३. संभोज के छह प्रकार : ओघ आदि इसका प्रतीकात्मक अर्थ है। स्वाध्याय, भोजन आदि सभी मंडलियों ४. ओघ संभोज के बारह प्रकार से जिसका संबंध होता है, वह सांभोजिक कहलाता है। ० उपधि संभोज के स्थान, विसंभोजविधि प्राचीन काल में साधुओं के लिए सात मंडलियां होती ० श्रुत संभोज थीं-१. सूत्रमंडली, २. अर्थमंडली, ३. भोजनमंडली, ४. काल० भक्तपान-दान-निकाचना संभोज प्रतिलेखनमंडली, ५. आवश्यकमंडली, ६. स्वाध्याय-मंडली, ० अंजलिप्रग्रह संभोज । ७. संस्तारकमंडली।-प्रसा ११९६ ० अभ्युत्थान-कृतिकर्मकरण संभोज विसांभोजिक-जिसका सभी मंडलियों से संबंध विच्छिन्न कर ० वैयावृत्त्यकरण-समवसरण संभोज दिया जाता है, वह विसांभोजिक है।) ० सन्निषद्या-कथाप्रबंध संभोज ५. अभिग्रह-दान-अनुपालना-संभोज २. सदृशकल्पी ही साम्भोजिक ० उपपात-संवास संभोज ठितकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णतरे। ६.सांभोजिक-समनज्ञ-साधर्मिक उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिसकप्पो स सरिसो उ॥ * तीर्थंकर साधर्मिक नहीं द्र साधर्मिक आहार उवहि सेज्जा, अकप्पिएणं तु जो ण गिण्हावे। ० सम्भोज प्रत्ययिक क्रिया ण य दिक्खेति अणट्ठा, अडयालीसं पि पडिकुटे॥ ७. विसंभोजविधि-प्रवर्तन : महागिरि-सुहस्ती उग्गमविसुद्धिमादिसु, सीलंगेसुं तु समणधम्मेसु । ८. संभोज-असंभोजविधि-परीक्षा : कूप दृष्टांत उत्तरगुणसरिसकप्यो, विसरिसधम्मो विसरिसो उ॥ ९. विसंभोज : उत्तरगुणों में ___* परिहारतप : परस्पर संभोज वर्जन द्र परिहारतप अण्णो वि आएसो, संविग्गो अहव एस संभोगी।... १०. साधु-साध्वी की विसांभोजिककरण-विधि (निभा ५९३२, ५९३४-५९३६) ११. एक ही दोष चौथी बार सेवन से विसांभोजिक जो दशविध स्थितकल्प, द्विविध स्थापनाकल्प और १२. कुशील संसर्ग से विसांभोजिक उत्तरगुणकल्प में समान होता है, वह सदृशकल्पी सांभोजिक है। १३. साम्भोजिक साधु-साध्वी : आलोचना-निषेध ० स्थितकल्प-आचेलक्य आदि (द्र कल्पस्थिति) | * संभोज हेतु उपसम्पदा द्र उपसम्पदा ० स्थापनाकल्प के दो प्रकार हैं-१. अकल्प स्थापना कल्प|१४. संभोज उपसम्पदा विधि अकल्पनीय आहार, उपधि और शय्या को ग्रहण न करना। २. शैक्षस्थापना कल्प-अठारह प्रकार के परुष, बीस प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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