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________________ सम्यक्त्व ५९६ आगम विषय कोश-२ जं जं सुयमत्थो वा, उद्दिटुं तस्स पारमप्पत्तो। ० सम्यक्त्व-मिथ्यात्व पदगलों का संक्रमण अन्नन्नसुयदुमाणं, पल्लवगाही उ भावचलो॥ | ५. सम्यक्त्वप्राप्ति का एक हेतु : जातिस्मृति (बृभा ७५१-७५५) । ६. सम्यक्त्वप्राप्ति और ज्ञान चंचल के चार प्रकार हैं ० सम्यक्त्व का हेतु : अपाय * आशातना से सम्यक्त्व का नाश द्र आशातना १. गति चंचल-जो अत्यन्त द्रतगामी होता है। ७. मिथ्यात्वप्राप्ति का हेतु और दृष्टांत २. स्थान चंचल के तीन प्रकार हैं ८. मिथ्यादर्शन के प्रकार ० जो हाथ आदि से दीवार आदि का बार-बार स्पर्श करता है। ० आभिग्रहिक-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व • जो बैठा-बैठा इधर-उधर घूमता है। ९. सम्यक्त्वदीक्षा और वाचना के अयोग्य ० जो पैरों का बार-बार संकोच-विकोच करता है। १०. अक्रियावादी-कृष्णपक्षी ३. भाषाचंचल के चार प्रकार हैं |११. क्रियावादी-शुक्लपक्षी ० असत्प्रलापी-असत्य अथवा अशोभन बोलने वाला। १. सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन की परिभाषा ० असभ्यप्रलापी-असभ्य वचन बोलने वाला। सोच्चा व अभिसमेच्च व, तत्तरुई चेव होइ सम्मत्तं। ० असमीक्षितप्रलापी-बिना सोचे-विचारे बोलने वाला। ० अदेशकालप्रलापी-बिना अवसर बोलने वाला। कार्य को विनष्ट तत्थेव य जा विरुई, इतरत्थ रुई य मिच्छत्तं॥ होते देख ऐसा कहने वाला-मैंने तो पहले ही जान लिया था कि (बृभा १३४) यह इस प्रकार होगा। केवलज्ञानी आदि के उपदेश को सुनकर अथवा जातिस्मरण ४. भावचंचल-जो मुनि आवश्यक, दशवैकालिक आदि आगमों आदि के द्वारा स्वयं जानकर जो तत्त्वों में रुचि (श्रद्धा) होती है, के सूत्र और अर्थ का अध्ययन प्रारंभ कर उस अध्ययन को पूर्ण वह सम्यक्त्व है। किये बिना ही अन्यान्य शास्त्र रूपी वृक्षों के पल्लवों-आलापक, तत्त्व में अरुचि और अतत्त्व में रुचि होना मिथ्यात्व है। श्लोक, गाथा आदि को थोड़ा-थोड़ा अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण ० दर्शन और ज्ञान में भेद करता है, वह पल्लवग्राही भावचंचल कहलाता है। 'यदेवेदं भगवद्भिरुपदिष्टं तदेव तत्त्वं युक्तियुक्तत्वाद् * समिति के प्रकार, उदाहरण आदि द्र श्रीआको १ समिति नेतरत' इति सम्यग्दर्शनम् । ज्ञानमप्येवंरूपमेवेति कः सम्यग्दर्शनसम्यक्त्व- सम्यग् दृष्टि। अनंतानुबंधीचतुष्क (क्रोध, मान, ज्ञानयोः प्रतिविशेषः? उच्यतेमाया, लोभ) और दर्शनत्रिक (मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व- दंसणमोग्गह ईहा, नाणमवातो उ धारणा जह उ। मोह)-इस सप्तक के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं॥ होने वाली आत्मविशुद्धि। ___ यस्तत्त्वानामवगमः स ज्ञानम्, या त्ववगतेषु तत्त्वेषु रुचिः-परमा श्रद्धा आत्मनः परिणामविशेषरूपा सा १. सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन की परिभाषा ० दर्शन और ज्ञान में भेद सम्यग्दर्शनम् ""। (बृभा १३३ वृ) २. सम्यक्त्व के प्रकार 'अर्हतों द्वारा जो भी उपदिष्ट है, युक्तियुक्त होने से वही ० औपशमिक सम्यक्त्व : मिथ्यात्वमोह का अनुदय तत्त्व है, अन्य नहीं'-यह सम्यगदर्शन है और ज्ञान का भी यही ० शेष कर्मों का मंद अनुभाव : नैरयिक दृष्टांत रूप है, फिर सम्यग्दर्शन और ज्ञान में क्या भेद है? ३. भव्य-अभव्य और ग्रन्थिभेद जैसे सामान्य अवबोध के कारण अवग्रह और ईहा दर्शन ४. सम्यक्त्व प्राप्ति : त्रिपुंजी."अपुंजी है, विशेष अवबोधात्मक होने से अपाय और धारणा ज्ञान है, वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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