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________________ संज्ञी ५८८ आगम विषय कोश-२ संज्ञी-अविरतसम्यग्दृष्टि। श्रावक। ते वि य पुरिसा दुविहा, सन्नी अस्सन्निणो य बोधव्वा। मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव॥ 'श्रावकः' प्रतिपन्नाणुव्रतः, 'संज्ञी' अविरतसम्यग्दृष्टिः, आभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि। 'असंज्ञी' मिथ्यादृष्टिः। (बृभा १९११ की वृ) सइरहसिय-प्पललिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा॥ __ अणुव्रती को श्रावक, अविरतसम्यग्दृष्टि को संज्ञी और अक्खाइयाउ अक्खाणगाइँ गीयाइँ छलियकव्वाइं। मिथ्यादृष्टि को असंज्ञी कहा गया है। कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होंति ॥ * सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि द्र सम्यक्त्व एएसिं तिण्हं पी, जे उ विगाराण बाहिरा पुरिसा। * सम्यग्दृष्टि और संज्ञीश्रुत द्र श्रीआको १ श्रुतज्ञान वेरग्गरुई निहुया, निसग्गहिरिमं तु मज्झत्था॥ सो भविय सुलभबोही, परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो।" ...देवगुरुधर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानं वा विद्यते येषां सुलभा-सुप्रापा बोधिः-अर्हद्धर्मप्राप्तिर्यस्याऽसौ ते संज्ञिनः, श्रावकाः। (बृभा २५६२-२५६५ वृ) सुलभबोधिकः असावपि दीर्घसंसारी स्यादित्याह-परीत्त: पुरुष दो प्रकार के हैं-संज्ञी और असंज्ञी। संज्ञा का अर्थ परिमितः संसारो यस्य"। (बृभा ७१४ वृ) है-देव, गुरु और धर्मतत्त्व-इस त्रिपदी का यथार्थ परिज्ञान। यह भव्य प्राणी भी कदाचित् दुर्लभ-बोधि हो सकता है, संज्ञा जिसके होती है, वह संज्ञी-श्रावक और जिसके नहीं होती, इसलिए सुलभबोधि विशेषण का प्रयोग किया जाता है। जिसे वह असंज्ञी है। प्रत्येक के चार-चार भेद हैंअर्हत् धर्म की प्राप्ति सुलभ है, वह सुलभबोधि है। वह भी १. आभरणप्रिय-केश आदि को अलंकृत करने वाले। दीर्घसंसारी हो सकता है, अतः परीतसंसारी-परिमित भवभ्रमण २. कांदर्पिक-स्वेच्छा से अट्टहासपूर्वक हंसने वाले, धतक्रीडा करने वाला, इस विशेषण का प्रयोग हुआ है। परीतसंसारी भारी आदि करने वाले तथा शारीरिक कामचेष्टाएं करने वाले। कर्मों वाला भी हो सकता है। जो प्रतनुकर्मा है, वह शीघ्र मुक्त हो ३. काथिक-आख्यायिका (तरंगवती, मलयवती आदि), आख्यान जाता है। (धूर्ताख्यान आदि), गीत, शृंगारकाव्य, कथा (वसुदेवचरित आदि) ......"सन्नी, दंसणऽहाभद्द दाणसड्डे या..... तथा त्रिसमुत्था (धर्म, काम और अर्थ-इस पुरुषार्थत्रयी की वक्तव्यता _ 'संज्ञी' गृहीताणुव्रतः दर्शनसम्पन्नोऽविरत-सम्यग्दृष्टिः, वाली) संकीर्ण कथा-इन कथाओं को कहकर अपनी आजीविका 'यथाभद्रकः' सम्यक्त्वरहितः परं सर्वज्ञशासने साधुषु च । चलाने वाले पुरुष। बहुमानवान्, 'दानश्राद्धः' दानरुचिः। (बृभा १९२६ वृ) ४. मध्यस्थ-जो आभरण, कंदर्प और कथा-इनसे उत्पन्न विकारों श्रावक की चार कक्षाएं हैं से रहित हैं, वैराग्यरुचि और इन्द्रियप्रतिसंलीन हैं तथा स्वभाव से १. संज्ञी-जिसने अणुव्रतों को स्वीकार किया है। ही जो लज्जावान् हैं, वे मध्यस्थ पुरुष हैं। २. दर्शनसम्पन्न-जो व्रती नहीं है, किन्तु सम्यग्दृष्टि है। (श्रद्धा और वृत्ति की तरतमता के आधार पर श्रमणोपासक ३. यथाभद्रक-जो सम्यक्त्व से रहित है, किन्तु जिनशासन और को चार वर्गों में विभक्त किया गया हैसाधुओं के प्रति बहुमान रखने वाला है। १. माता-पिता के समान-जिनमें श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ वत्सलता ४. दानश्राद्ध-जो प्रीतिपूर्वक साधु को दान देने वाला है। होती है....। माता-पिता के समान श्रमणोपासक तत्त्वचर्चा व (श्रावक की चार भूमिकाएं हैं-१. सुलभबोधि, २. सम्यग्- जीवननिर्वाह-दोनों प्रसंगों में वत्सलता का परिचय देते हैं। दृष्टि, ३. व्रती, ४. प्रतिमाधारी। २. भाई के समान-जिनमें श्रमणों के प्रति वत्सलता और उग्रता संज्ञी को व्रती, दर्शनसम्पन्न को सम्यग्दृष्टि और यथाभद्र दोनों होती है। इस कोटि के श्रमणोपासक तत्त्वचर्चा में निष्ठुर को सुलभबोधि कहा जा सकता है।) वचनों का प्रयोग कर देते हैं, किन्तु जीवननिर्वाह के प्रसंग में * प्रतिमाधारी श्रावक उनका हृदय वत्सलता से परिपूर्ण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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