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________________ संघ ५८६ आगम विषय कोश-२ जिनकी अर्हत् द्वारा अनुमत गुरुकुलवास में रुचि/प्रीति संघ, बहुश्रुत, तपस्वी, श्रावक और परतीर्थिक को अपना मुंह कैसे होती है, उनके द्वारा निरुपम निर्वाणसुख और श्रमणसुख-ये दोनों दिखाऊंगा? इस लज्जा से वह पाप नहीं करता। ही प्रकार सुखपूर्वक आराधित होते हैं। २. भय-अवर्णवाद के भय से वह दुष्कृत्य करता हुआ अत्यधिक नवदीक्षित मुनि का मन प्रायः धर्म में रमण नहीं करता है शंकित होता है। यद्यपि वह अपयश के भय से अशुभ आचरण किन्तु वह भी गच्छ में साधुओं के साथ संयुक्त होकर संयमधुरा को नहीं करता, फिर भी वह अच्छा है, क्योंकि उसने यश की कामना वहन कर लेता है। जैसे एक बैल दूसरे बैल के साथ जुड़कर की है। यश, वर्ण और संयम एकार्थक हैं। तत्त्वत: गुरु को मेरा अविषम धुरा को वहन कर लेता है। दुष्कृत ज्ञात हो जाएगा तो वे मुझे उग्र दण्ड देंगे-इस प्रकार __ अकेले व्यक्ति के चित्त में क्षण-क्षण में शभ-अशभ गरुदण्ड के भय से वह पाप नहीं करता। अध्यवसाय-विचार उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं इसलिए ३. गौरव-मेरे गुरु लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्मान्यसुसाधुओं के समुदाय में रहना चाहिए। बहुमान्य हैं, मेरे अपराध के कारण उनकी लघुता न हो। ११. संघ में संयमसुरक्षा के स्थान मैं सर्वमान्य हूं। मैं ऐसा काम न करूं जिससे अपूज्य बन जइ वि य निग्गयभावो, तह विय रक्खिज्जते स अण्णेहिं। जाऊं। यदि मैं पापाचरण करूंगा तो तृण से भी तुच्छ हो जाऊंगावंसकडिल्ले छिण्णो, वि वेलओ पावए न महि॥ यह सोचकर वह पाप का वर्जन करता है। ४. धर्मश्रद्धा-जो आत्मसाक्षी से ही पाप का परिवर्जन करता है, (व्यभा २६९५) उसके दुष्ट संकल्प होता ही नहीं (और कभी हो भी जाता है तो वह बांसों के गहन प्रदेश में छिन्न बांस भी अन्य बांसों के उसे विफल कर देता है। यह आत्मरक्षा धर्मश्रद्धा का परिणाम है। कारण पृथ्वी पर नहीं गिरता। इसी प्रकार संयम से निर्गत भावधारा तीव्र धर्मश्रद्धावान स्वभावतः उत्सर्गकारी होता है-विधिवाला साधु अपने अन्य सहयोगी साधुओं द्वारा सुरक्षित रहता है। विधानों की यथावत् अनुपालना करता है। वह सर्वत्र ममत्व के लज्जणिज्जो उ होहामि, लज्जए वा समायरं। बंधन से मुक्त होता है, अकेला हो या परिषद् में, सदा पापकर्म से कलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपक्खतो॥ असिलोगस्स वा वाया, जोऽतिसंकति कम्मसं। १२. संघप्रभावक राजा सम्प्रति तहावि साधु तं जम्हा, जसो वण्णो य संजमो॥ अज्जसुहत्थाऽऽगमणं, दटुं सरणं च पुच्छणा कहणा। दाहिति गुरुदंडं तो जइ नाहिंति तत्ततो।... पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरण्णो॥ लोए लोउत्तरे चेव, गुरवो मज्झ सम्मता। ....... तसजीवपडिक्कमओ पभावओ समणसंघस्स। मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसिं लहुत्तया॥ माणणिज्जो उ सव्वस्स, न मे कोई न पूयए। जीवन्तस्वामिप्रतिमावन्दनार्थमुज्जयिन्यामार्यसुहस्तिन तणाण लहुतरो होहं, इति वजेति पावगं॥ आगमनम्"आर्यसुहस्तिगुरून् दृष्ट्वा नृपतेर्जातिस्मरणम्।.. आयसक्खियमेवेह, पावगं जो वि वज्जते। पृच्छा कृता-भगवन्! अव्यक्तस्य सामायिकस्य किं फलम? अप्पेव दुट्टसंकप्पं, रक्खा सा खल धम्मतो सूरिराह-राज्यादिकम्।"ततः सूरय उपयुज्य कथयन्तिनिसग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणो। ""त्वं पूर्वभवे मदीयः शिष्य आसीत्। एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्खति॥ (बृभा ३२७७, ३२७८ वृ) (व्यभा २७४९, २७५०, २७५२, २७५४-२७५७) उज्जयिनी में जीवंतस्वामी की प्रतिमावन्दना के लिए संघ में पापवर्जन के चार कारण हैं आर्यसुहस्ती का आगमन। उन्हें देख सम्प्रति को अपने पूर्वजन्म १. लज्जा-मैं पापाचरण करूंगा तो लज्जित होऊंगा, कल - गण- की स्मृति हो गई, तब उसने पूछा--अव्यक्त सामायिक का क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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