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________________ संघ नहु गारवेण सक्का, ववहरिडं संघमज्झयारम्मि ।..... (व्यभा १७१८-१७२०, १७२३) व्यवहारी को संघ में गौरव (अहंकार) रहित होकर व्यवहार करना चाहिये। गौरव के आठ प्रकार हैं१. परिवार का गौरव ५. तपस्वी होने का गौरव २. ऋद्धि का गौरव ६. नैमित्तिक होने का गौरव ३. धर्मकथी होने का गौरव ७. विद्यातिशय का गौरव ४. वादी होने का गौरव ८. रत्नाधिक होने का गौरव जो व्यवहारछेदी इन गौरवों के वशीभूत होकर कहता है, 'तुम मुझे ही प्रमाण मानो' वह अगीतार्थ है। संघ में गौरव से व्यवहार करना शक्य नहीं है। ७. सारणा - वारणाशून्य गच्छ गच्छ नहीं 4 जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो ॥ विस्मृते क्वचित् कर्त्तव्ये ' भवतेदं न कृतम्' इत्येवंरूपा स्मारणा सारणा, अकर्त्तव्यनिषेधो वारणा, अनाभोगादिना अन्यथा कुर्वतः सम्यक्प्रवर्तना प्रेरणा, निवारितस्यापि पुनः पुनः प्रवर्त्तमानस्य खरपरुषोक्तिभिः शिक्षणं प्रतिनोदना । (बृभा ४४६४ वृ) जिसमें सारणा, वारणा, प्रेरणा और प्रतिनोदना नहीं है, वह गच्छ गच्छ नहीं है। संयमाभिलाषी के लिए वह त्याज्य है । • सारणा - कर्त्तव्य की विस्मृति होने पर 'आपने यह नहीं किया'इस रूप में स्मारणा करना । ० वारणा - अकरणीय का निषेध करना । प्रेरणा - कर्त्तव्यबोध के अभाव में अन्यथा करते हुए को सम्यक् प्रवृत्त करना । • प्रतिनोदना - निवारणा करने पर भी पुनः पुनः उसी कार्य में प्रवर्तमान को खर- परुष वचनों से प्रशिक्षण देना । ८. गच्छ का परिमाण पणगो व सत्तगोवा, कालदुवे खलु जहण्णतो गच्छो । बत्तीसती सहस्सो, उक्कोसो सेसओ मज्झो ॥ ऋषभस्वामिनो ज्येष्ठस्य गणधरस्य पुण्डरीकनाम्नो द्वात्रिंशत्सहस्रो गच्छोऽभूत् । (व्यभा १७३१ वृ) O Jain Education International आगम विषय कोश - २ ऋतुबद्धकाल में जघन्यतः पांच और वर्षाकाल में सात साधुओं का गच्छ होता है । उत्कृष्टतः बत्तीस हजार साधुओं का गच्छ होता है, शेष मध्यम है। ५८४ अर्हत् ऋषभप्रभु के ज्येष्ठ गणधर पुण्डरीकस्वामी (ऋषभसेन) के बत्तीस हजार साधुओं का गच्छ था। ९. कौन महर्द्धिक - गच्छ या जिनकल्प ? गच्छे जिणकप्पम्मि य, दोण्ह वि कयरो भवे महिड्डीओ । निप्फायग-निप्फन्ना, दोन्नि वि होंती महिड्डीया ॥ दंसण - नाण-चरित्ते, जम्हा गच्छम्मि होइ परिवुड्डी । एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ ॥ पुरतो व मग्गतो वा, जम्हा कत्तो वि नत्थि पडिबंधो । एएण कारणेणं, जिणकप्पीओ महिड्डीओ ॥ दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव । सीसो च्चिय सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो ॥ रयणाय उ गच्छो, निप्फादओं नाण-दंसण- चरित्ते । एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ ॥ (बृभा २१०९ - २११२, २१२२) गच्छ और जिनकल्प-दोनों में महर्द्धिक कौन है ? निष्पादक और निष्पन्न - दोनों ही महर्द्धिक हैं। सूत्र और अर्थ से निकल्प का निष्पादक होने से गच्छ महर्द्धिक है। ज्ञान-दर्शन- चारित्रनिष्पन्न होने से जिनकल्पी महर्द्धिक है। गच्छ में ज्ञान-दर्शन- चारित्र की वृद्धि होने के कारण गच्छ महर्द्धिक है। जिनकल्पी पूर्व विहृत और अग्रिम विहरिष्यमाण क्षेत्रों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रतिबद्ध नहीं होते हैं, इसलिए जिनकल्पी महर्द्धिक हैं । एक दीप से दूसरा दीप प्रज्वलित होता है और वह मूल दीप उसी रूप में दीप्त रहता । जिनकल्पिकरूपी दीप भी गच्छदीप से ही प्रादुर्भूत होता है और वह गच्छदीप भी ज्ञानदर्शन - चारित्र से उसी रूप में प्रदीप्त रहता है। शिष्य ही शिक्षित होता हुआ क्रमशः आचार्य बनता है। स्थविरकल्पिक ही तप आदि भावनाओं से अपने को भावित करता हुआ क्रमशः जिनकल्पी होता है, अन्य प्रकार से नहीं होता । गच्छ रत्नाकर की भांति जिनकल्पिक आदि रत्नों का उत्पत्तिस्थल है, ज्ञान- दर्शन - चारित्र का निष्पादक है, इसलिए गच्छ महर्द्धिक है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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