SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम विषय कोश-२ ५७७ श्रुतज्ञान मुनि श्रुतस्थविर कहलाता है, अतः स्थानांग-समवायांग अध्ययन (प्राचीन काल में अध्ययन के स्रोत थे गुरु। शास्त्र लिखे के लिए विकृष्ट पर्याय का ग्रहण किया गया है। नहीं जाते थे। उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी। इस स्थिति में स्थानांग और समवायांग समृद्ध ग्रन्थ हैं। उनसे बारह ही अध्ययन की गुरुगम व्यवस्था का विकास हुआ, उसका प्रतिपादन अंगों की सूचना मिलती है, अत: उनसे परिकर्मित मति वाला उद्देश (पढने की आज्ञा), समुद्देश (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का दस वर्ष का दीक्षित मुनि व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन के योग्य निर्देश), अनुज्ञा (अध्यापन की आज्ञा) और अनुयोग (व्याख्या)हो जाता है। इन चार पदों द्वारा किया गया है। विद्यार्थी शिष्य पहले गुरु की १३. श्रुत का उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा काल आज्ञा प्राप्त करता। फिर वह परिवर्तना के द्वारा पढे हुए ज्ञान को थवथुतिधम्मक्खाणं, पुवद्दिष्टुं तु होति संझाए। स्थिर रखने का अभ्यास करता। तीसरे चरण में उसे अध्यापन की कालियकाले इतरं त पवटि विगिटे वि अनुमति प्राप्त होती। चौथे चरण में उसे व्याख्या करने की स्वीकृति पत्ताण समुद्देसो, अंगसुतक्खंध पुव्वसूरम्मि।..... मिलती।"-अनु सू २ टि) दिवसस्स पच्छिमाए, निसिं तु पढमाय पच्छिमाए वा। १४. जीव में श्रृतज्ञान की भजना उद्देसज्झयऽणुण्णा, न य रत्ति निसीहमादीणं॥ नियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु। आदिग्गहणा दसकालिओत्तरज्झयण चुल्लसुतमादी। सुयनाणि सुयअनाणी, केवलनाणी व सो होज्जा॥ एतेसि भइयऽणुण्णा, पुव्वण्हे वावि अवरण्हे॥ (बृभा १३९) अध्ययनमुद्देशं वा पठन्तो यदैव श्रवणं प्राप्ता भवन्ति, श्रुतज्ञान नियमतः जीव है। जीव में तीन स्थानों से श्रुतज्ञान तदैव तस्याध्ययनस्योद्देशस्य वा समुद्देशः क्रियते।. पूर्वसूरे' की भजना है-वह कभी श्रुतज्ञानी होता है, कभी श्रुतअज्ञानी उद्घाटायामपि पौरुष्याम्"। (व्यभा ३०३४-३०३७ वृ) होता है और कभी केवलज्ञानी होता है। पूर्व उद्दिष्ट स्तव, स्तुति और धर्माख्यान संध्यावेला में भी पठनीय होते हैं। प्रथम पौरुषी में उद्दिष्ट कालिकश्रुत काल (प्रथम ० अकेवली भी केवलितुल्य एवं चरम पौरुषी) में पठनीय है। प्रथम पौरुषी में उद्दिष्ट उत्कालिक .गीयत्थो..."अकेवली वि केवलीव भवति। अहवा श्रुत व्यतिकृष्ट काल में भी पढ़ा जा सकता है, किन्तु संध्या और केवली तिविधो-सुयकेवली अवधिकेवली केवलिकेवली। अस्वाध्यायिक का वर्जन आवश्यक है। (निभा ४८२० की चू) उद्देशक या अध्ययन का जब भी श्रवण प्राप्त होता है, गीतार्थ-श्रुतज्ञानी अकेवली होते हुए भी केवली के समान तभी उसका समुद्देश किया जाता है। अंग अथवा श्रुतस्कंध की होता है। अथवा केवली तीन प्रकार के होते हैं-श्रुतकेवली, पूर्वसूर (उद्घाटा पौरुषी) में अनुज्ञा हो सकती है। अवधिज्ञानकेवली, केवलज्ञानकेवली। उद्देशक और अध्ययनों की अनुज्ञा दिन की पश्चिम (चरम) पौरुषी तथा रात्रि की प्रथम या पश्चिम पौरुषी में प्रवर्तित होती है। १५. श्रुत को प्रमाण मानने वाला प्रमाणभूत निशीथ आदि आगाढ योगों की अनुज्ञा दिन की प्रथम और चरम जो तं जगप्पदीवहिं पणीयं सव्वभावपण्णवणं। पौरुषी में प्रवृत्त होती है, रात्रि में नहीं। ण कुणति सुतं पमाणं, ण सो पमाणं पवयणम्मि॥ ____ दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, क्षुल्लककल्पश्रुत, औपपातिक (बृभा ३६४१) आदि की अनुज्ञा वैकल्पिक है-पूर्वाह्न में भी हो सकती है, जो जगप्रदीप-अर्हत् द्वारा प्रणीत सर्वभावप्रज्ञापक श्रुत को अपराह्न में भी हो सकती है। प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं करता, वह स्वयं प्रवचन अर्थात् * ओज-अनोज उद्देशक-काल द्र उत्सारकल्प चतुर्विध धर्मसंघ में प्रमाणभूत नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy