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________________ आगम विषय कोश - २ नहीं होती। जैसे- अनेक धान्यों के मध्य पड़े उड़द को देखकर भी अन्य धान्य के साथ उसकी सदृशता के कारण उसकी एकान्ततः उपलब्धि नहीं होती । ३. विस्मृति से अनुपलब्धि- पहले या पीछे अर्थ की उपलब्धि होने पर भी उसके वाचक नाम की विस्मृति के कारण सम्पूर्ण अर्थ का अक्षरलाभ नहीं होता। अक्षर- उपलब्धि के पांच प्रकार हैं १. सदृशता से – कोई शाबलेय को देखकर परोक्षवर्ती बाहुले को सदृशता के कारण जान लेता है। २. विपक्षता से - सर्प को देखकर नकुल का और नकुल देखकर सर्प का अनुमान हो जाता है। ३. उभयधर्म दर्शन से - अश्वतर - खच्चर को देखकर गधे और अश्व दोनों का तथा शिखरिणी को प्राप्त कर गुड़ और दही - दोनों का अक्षरलाभ होता है। ४. औपम्य से - कोई वस्तु पूर्व में अनुपलब्ध होने पर भी औपम्य से जान ली जाती है। यथा-गौ की तरह गवय होता है, केवल उसके गलकम्बल नहीं होता - व्यक्ति ऐसा सुनकर कालांतर में प्रथम बार गवय को देखकर भी जान लेता है कि यह गवय है। ५. आगम से - छद्मस्थ के ज्ञान का विषय न होने पर भी आप्तागमप्रामाण्य के कारण उन-उन वस्तुओं का अक्षरलाभ होता है। जैसे- भव्य, अभव्य, देवकुरु, नारक, स्वर्ग, मोक्ष आदि । असंज्ञी जीवों को पदार्थ का लाभ होने पर भी अक्षर का लाभ निश्चित रूप से नहीं होता (शंख का शब्द सुनने पर भी उन्हें यह लब्धि उत्पन्न नहीं होती कि यह शंख का शब्द है) । संज्ञी जीवों को अर्थ की उपलब्धि के साथ ही अक्षरलाभ होता है। यह शंख का ही शब्द है - इस प्रकार के निर्णय में भजना है - वह कभी हो भी जाता है, कभी नहीं भी होता । ६. अक्षर - अनक्षरश्रुत की पूर्वता सुणतीति सुयं तेणं, सवणं पुण अक्खरेयरं चेव । तेणऽक्खरेयरं वा, सुयनाणे होति ५७३ पुव्वं तु ॥ (बृभा १४७) प्रतिपत्ता उच्यमान शब्द को सुनता है, इस कारण से वह Jain Education International श्रुतज्ञान श्रुत कहलाता है। श्रवण अक्षर-अनक्षर का होता है, अतः श्रुत के चौदह भेदों में अक्षर - अनक्षर श्रुत को प्रथम स्थान प्राप्त है। ७. सपर्यवसितश्रुत: देवभव में श्रुतग्रंथों की स्मृति पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभवमासज्ज । मणुये रोग - पमाया, केवल-मिच्छत्तगमणे वा ॥ चउदसपुव्वी मणुओ, देवत्ते तं न संभरइ सव्वं । देसम्म होइ भयणा, सट्ठाण भवे वि भयणा उ ॥ कश्चित् पुनरेकादशस्वप्यंगेषु सर्वं स्मरति, कश्चितेषामपि देशम् । (बृभा १३७, १३८ वृ) एक पुरुष की अपेक्षा श्रुत के सपर्यवसित होने के पांच हेतु हैं - १. देवभव में गमन, २. मनुष्यभव में रोगोत्पत्ति, ३ . प्रमाद अथवा विस्मृति, ४. केवलज्ञान की उत्पत्ति, ५. मिथ्यादर्शन में गमन । चतुर्दशपूर्वी मनुष्य को देवत्व की प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण श्रुत की स्मृति नहीं रहती। इसका हेतु है- विषयप्रमाद में लीनता के कारण उसमें तथाविध उपयोग का अभाव। देश- श्रुत-स्मरण में भजना है - किसी को एक देश (अंश) की स्मृति रहती है तो किसी को देश के भी देश की और किसी को सम्पूर्ण ग्यारह अंगों भी स्मृति रह जाती है तो किसी को उनका भी एक देश याद रहता है। स्वस्थान - मनुष्यभव में भी श्रुतपतन की भजना है - रोग उत्पन्न होने पर तीव्र पीड़ा के कारण स्मृति उपहत हो जाने से सीखा हुआ श्रुत विस्मृत हो जाता है। परिवर्तना के अभाव में प्रमाद से अधीत श्रुत नष्ट हो जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर श्रुतज्ञान कृतकृत्य हो जाता 1 तत्त्वश्रद्धा के विपरीत होने पर सर्वश्रुत का अभाव हो जाता 1 ८. तित्थोगाली में पूर्व-विच्छेद-विवरण तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होति आणुपुव्वीए । जो जस्स उ अंगस्सा, वुच्छेदो जहि विणिद्दिट्ठो ॥ (व्यभा ४५३२) तित्थोगाली में जिस अंगआगम का जब विच्छेद हुआ, उसका विवरण है। जो व्यक्ति पूर्वविच्छेद के साथ व्यवहार चतुष्क For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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