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________________ शय्या ५५६ आगम विषय कोश-२ जिसमें शयन किया जाता है, वह शय्या-वसति है और दविहकरणोवघाया, संसत्ता पच्चवाय सिजविही। वही संस्तारक है। शय्या में जो शयनयोग्य स्थान-अवकाश है, जो जाणति परिहरिउं, सो गहणे कप्पितो होति। वह शय्यासंस्तारक कहलाता है। पढवि दग अगणि हरियग, तसपाण सागारियादि संसत्ता। शय्या अथवा संस्तारक के दो प्रकार हैं-१. परिशाटी-तृण बंभवयआदि-दंसणविराहिगा पच्चवाया उ॥ आदि का संस्तारक।२. अपरिशाटी-फलक आदि का संस्तारक। (बृभा ५४२, ५६६, ५८०, ५८८) ___ अथवा संस्तारक के दो प्रकार हैं शय्याकल्पिक के दो प्रकार हैं१. निर्हारिम-जिसे अन्यत्र ले जाकर सौंपा जाए। १. रक्षणकल्पिक-बाल आदि वसति की रक्षा नहीं कर सकते, २. अनिर्हारिम-जिसे अन्यत्र न ले जाया जाए। अत: जो बाल और ग्लान नहीं है, प्रमत्त (निद्रालु और कथाव्यसनी) ० शय्या और संस्तारक में भेद-अभेद नहीं है, गीतार्थ, धृतिमान्, वीर्यसम्पन्न और समर्थ है, उसे सव्वंगिया उ सेज्जा, बेहत्थद्धं च होति संथारो। वसतिपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। अहसंथडा २. ग्रहणकल्पिक-जिसमें वसतिग्रहण की योग्यता है। वसति (निभा १२१७) तीन दोषों से दूषित हो सकती है-१. द्विविध करणोपहता मूलकरण और उत्तरकरण (गृहनिर्माण संबंधी आरंभ) से उपहत। शय्या सर्वांगिकी-शरीरप्रमाण होती है, संस्तारक ढाई हाथ २. संसक्ता-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रस प्राणी और गृहस्थों का होता है। अथवा जो यथासंस्तृत (पृथ्वीशिला, काष्ठशिला) से संयुक्त। ३. प्रत्यपाया--ब्रह्मचर्य आदि व्रतों की तथा सम्यक्त्व अचल है, वह शय्या और जो चल है, वह संस्तारक है। की विराधना में हेतुभूत। शय्या सर्वाङ्गिकी संस्तारकोर्धतृतीयहस्तदीर्घहस्त गहणं च जाणएणं, सेज्जाकप्पो उ जेण समधीतो। चत्वार्यङ्गुलानि विस्तीर्णः। (व्य ८/३ की वृ) उस्सग्गववातेहिं, सो गहणे कप्पिओ होति।। शय्या शरीरप्रमाण तथा संस्तारक ढाई हाथ लम्बा और एक अणुण्णवणाय जतणा, गहिते जतणा य होति कायव्वा। हाथ चार अंगुल चौड़ा होता है। अणुण्णवणाएँ लद्धे, बेंती पडिहारियं एयं॥ १९. शय्या-संस्तारककल्पिक : ग्रहणविधि कास पुणऽप्पेयव्वो, बेति ममं जाधे तं भवे सुण्णो। उग्गम-उप्पायण-एसणाहिँ सुद्धं गवेसए वसहिं ।' अमुगस्स सो वि सुन्नो, ताधे घरम्मि ठवेज्जाहि॥ पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तों परिहरति।" (व्यभा ३४१४, ३४१५, ३४१७) (बृभा ६०१, ६०२) जिसने शय्याकल्प को सम्यक रूप से पढ़ लिया है, जो जो उदगम. उत्पाद और एषणा के दोषों का परिहार कर उत्सर्ग-अपवाद मार्ग को जानता है, वह ग्रहणकल्पिक है। शुद्ध शय्या की गवेषणा करता है, जिसने आचारचूला के शय्या' अनुज्ञापना और ग्रहणकाल-दोनों में यतना करनी चाहिए। नामक अध्ययन को पढ़ा हो, सुना हो, वह अध्ययन गुणित (अत्यंत अनुज्ञा प्राप्त होने पर मुनि गृहस्थ से कहे-हम इस संस्तारक अभ्यास से आत्मसात्) हो या अगुणित, धारित हो या अधारित, को प्रातिहारिक के रूप में ग्रहण करेंगे (प्रयोजन सम्पन्न होने पर फिर भी जो मुनि उसमें उपयुक्त होकर सूत्रोक्त विधि से शय्या का लौटा देंगे)-यह अनुज्ञापना यतना है। मुनि पुनः गृहस्थ से परिभोग करता है, वह शय्याकल्पिक है। पूछे-कार्य सम्पन्न होने पर इसे किसे लौटाना है? वह कहता रक्खण गहणे तु तहा, सेज्जाकप्यो उ होइ दुविहो उ... है-मुझे ही सौंप देना, मेरी अनुपस्थिति में अमुक व्यक्ति को तम्हा खलु अब्बाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य। लौटा देना, वह भी न मिले तो घर के अमुक स्थान में रख कप्पड़ य वसहिपालो, धिइमं तह वीरियसमत्थो॥ देना-यह ग्रहण यतना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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