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________________ व्यवहार अष्टमासिक ऋतुबद्धकाल में विहरणशील मुनि आचार्य प्रायोग्य वर्षावासक्षेत्र की मार्गणा करते हैं। वे क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर आचार्य के पास जाकर उस क्षेत्र के गुण-दोष बताते हैं । गच्छान्तर से समागत मुनि उनकी वार्ता को सुनकर अपने आचार्य के पास जाकर सारी बात बताते हैं, उन्हें उस क्षेत्र में ले जाते हैं, वहां वे सचित्त आदि ग्रहण करते हैं तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। क्योंकि वह क्षेत्र उनके अवग्रह में नहीं है। श्रुतउपसम्पदा के दो प्रकार हैं- अभिधारण और पठन । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं- अनंतर और परम्पर। दो के मध्य होने वाली श्रुतोपसम्पद् अनंतर और तीन आदि के मध्य होने वाली श्रुतोपसम्पद् परम्पर कहलाती है । मैं अमुक श्रुतवान् के पास अध्ययन करूंगा - कोई ऐसा निश्चय कर चलता है और वह श्रुतवान् भी किसी अन्य आचार्य को अभिधारित कर अन्यत्र जाता है। अन्यत्र जो है, वह भी अन्यत्र चला जाता है - यह परम्पर अभिधारण श्रुतोपसम्पद् है । ० सुख - दुःख आभवद्-मार्ग आभवद् व्यवहार अभिधारे उवसंपण्णो, दुविधो सुह-दुक्खितो मुणेयव्वो । सहायगो तस्स उ नत्थि कोई, सुत्तं च तक्केइ न सो परत्तो । गाणिए दोसगणं विदित्ता, सो गच्छमब्भेति समत्तकप्पं ॥ खेत्ते सुहदुक्खी तू, अभिधारेंताइँ दोण्णि वी लभति । पुर- पच्छसंथुयाई, ट्ठल्ला च जो लाभो ॥ जह कोई मग्गण्णू, अन्नं देसं तु वच्चती साधू । उवसंपज्जति उ तगं, तत्थऽण्णो गंतुकामो उ ॥ अम्मा- पितिसंबद्धा, मित्ता य वयंसगा य जे तस्स । दिट्ठा भट्ठा य तहा, मग्गुवसंपन्नओ लभति ॥ (व्यभा ३९८१-३९८३, ३९९५, ३९९९) सुखदुःखोपसम्पद् के दो प्रकार हैं- अभिधारक और उपसम्पन्न। जिसके कोई सहायक नहीं है और जो दूसरों से सूत्र की अपेक्षा नहीं रखता है, वह एकाकी-विहार के दोषों को जानकर समाप्तकल्प (जहां ५ या ७ साधु हैं या पर्याप्त सहयोगी हैं, उस) गच्छ में चला जाता है। उस परक्षेत्र में सुखदुःखोपसम्पन्न मुनि को अभिधारित कर प्रव्रजित होने वाले उसके पूर्वसंस्तुत- पश्चात्संस्तुत तथा अन्य व्यक्ति भी उसी के निश्रित होते हैं। कोई मार्गज्ञ मुनि अन्य देश के लिए प्रस्थित है। उसी देश में Jain Education International ५४२ आगम विषय कोश - २ जाने का इच्छुक दूसरा मुनि मार्गज्ञ साधु के पास उपसम्पदा ग्रहण करता है। यात्रापथ में जो शिष्य आदि प्राप्त होते हैं, वे सब मार्गोपदेशक के होते हैं। माता-पिता से सम्बद्ध, मित्र, वयस्य, दृष्ट और भाषित - ये सब उपसम्पदा स्वीकार करें तो ये मार्गोपसम्पत्प्रतिपन्न मुनि के होते हैं। विनयोपसम्पद् आभवद् व्यवहार विणओवसंपयाए, पुच्छण साहण अपुच्छ राहणे यः। .. केचिद् विहरन्तो ऽदृष्टपूर्वदेशं गतास्तैर्वास्तव्यानां साम्भोगिकानां समीपे प्रच्छनं कर्त्तव्यम् । सचित्तादिकस्य ग्रहणे सति परस्परं निवेदनं कर्त्तव्यं, यथैतत्सचित्तं वा लब्धं यूयं गृह्णीतेति, अनिवेदने असमाचारी । (व्यभा ४००० वृ) ० नवागंतुक मुनि साम्भोजिक वास्तव्य मुनियों से मासकल्प प्रायोग्य और वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्रों की संपृच्छा करते हैं। पूछे जाने पर वास्तव्य मुनि मौन रहते हैं या आगंतुक मुनिं इस विषय की पृच्छा नहीं करते हैं तो वे दोनों प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। सचित्त या अचित्त वस्तु प्राप्त होने पर परस्पर एक-दूसरे को निवेदन करते हैं - आप इसे ग्रहण करें । यह सामाचारी है । ० श्रुत आदि आभवद् व्यवहार का लाभ सुत- सुह- दुक्खे खेत्ते मग्गे विणओवसंपयाए य। बावीसपुव्वसंथुय, वयंसदिट्ठे य भट्ठे य ॥ इच्चेयं पंचविधं, जिणाण आणाऍ कुणति सट्ठाणे । पावति धुवमाराहं, तव्ववए विवच्चासं ॥ (व्यभा ४००६, ४००८) श्रुतोपसंपदा में बाईस का लाभ - छह अमिश्रवल्ली से - माता, पिता, भाई, भगिनी, पुत्र, पुत्री । सोलह मिश्रवल्ली से - माता की माता, पिता, भाई और भगिनी, पिता की माता, पिता, भाई और भगिनी, भाई का पुत्र और पुत्री, भगिनी का पुत्र और पुत्री, पुत्र का पुत्र और पुत्री, पुत्री का पुत्र और पुत्री - इनमें से कोई प्रव्रजित आदि होते हैं, तो वे श्रुतोपसम्पदा में उपसम्पद्यमान मुनि की निश्रा में होते हैं। सुख - दुःख उपसंपदा में पूर्वसंस्तुत मातापिता से संबंधित तथा वयस्य आदि का लाभ होता है। क्षेत्र उपसंपदा में वयस्य आदि, मार्ग उपसंपदा में दृष्ट-भाषित, मित्र आदि तथा विनय उपसंपदा में शिष्य, उपधि, शय्या आदि सभी वस्तुएं उपसम्पन्न की निश्रा में होती हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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