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________________ आगम विषय कोश-२ ५३७ व्यवहार काल-भाव में त्रिकालवर्ती दर्प-कल्प विषयक ज्ञान-दर्शन-चारित्र के अतिचारों की ऋजुभाव से आलोचना करता है। आगंतुक मुनि आलोचक की प्रतिसेवना को सुनकर, आलोचना की क्रमपरिपाटी का सम्यक अवधारण कर, उनके आगमज्ञान, तपसामर्थ्य, गृहस्थपर्याय, संयमपर्याय, शारीरिक-मानसिक बल, क्षेत्र आदि के विषय में उनसे जानकर या स्वयं निरीक्षण कर अपने गुरु के पास लौट आता है। उसने जिस क्रम से अवधारण किया था, उसी क्रम से सब तथ्य गुरु को निवेदित करता है। तत्पश्चात व्यवहारविधिवेत्ता आलोचनाचार्य ठेटमत्रों के प्रकाश में पौर्वापर्य का पर्यालोचन कर श्रतोपदेश से शिष्य को आज्ञा देते हैं'तम जाओ और उन आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आओ।' वह शिष्य वहां जाता है और अपने आचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त देता है। यह आज्ञा व्यवहार है। को यथोक्त बात कहता है। आलोचनार्ह स्वयं जाने में असमर्थ होने पर अपने धारणाकुशल शिष्य को वहां भेजते हैं यह संदेश देकर कि इसके सामने यथावृत्त शोधि करो। शिष्यप्रेषण से पूर्व वे शिष्य के आज्ञापरिणामकत्व की परीक्षा कर यह परीक्षा भी करते हैं कि वह अवग्रहण-धारण समर्थ है या नहीं, व्यामोहरहित सूत्र-अर्थ का धारक है या नहीं। ० वृक्ष का उदाहरण-गुरु ने शिष्य से कहा-उस ऊंचे वृक्ष पर चढ़ो और नीचे कूद जाओ। अपरिणामी शिष्य ने कहा-साधु के लिए वृक्ष पर चढ़ना कल्पनीय नहीं है। अतिपरिणामी शिष्य ने कहा-मैं अभी वृक्ष से गिरता हूं। मेरी यही इच्छा थी। गुरु ने कहा-तम दोनों ने मेरे कथन पर विमर्श नहीं किया। मेरे कथन का आशय यह था कि भवार्णव आपन्न तुम लोग तप-नियम-ज्ञानमय वक्ष पर आरोहण कर संसारसागरतट के उस पार पहुंच जाओ। परिणामी शिष्य ने सोचा-मेरे गुरु स्थावर जीवों की भी हिंसा की इच्छा नहीं करते, पंचेन्द्रिय जीव-हिंसा का तो प्रश्न ही नहीं है। गुरु के इस आदेश में अवश्य कोई रहस्य है-यह सोचकर वह वृक्ष पर चढ़ने को तत्पर हुआ पर गुरु ने उसे रोक दिया। ० बीज का उदाहरण-गुरु ने कहा-बीज लाओ। अपरिणामक शिष्य ने कहा-साधु बीज ग्रहण नहीं कर सकता। अतिपरिणामक पोटली में बीज बांध कर ले आया। गरु ने कहा-मैंने उगने में समर्थ सचित्त अम्लिका बीज लाने को नहीं कहा था। परिणामक शिष्य ने पूछा-भंते ! कौन से बीज लाऊं? कितनी मात्रा में बीज लाऊं? उगने में समर्थ बीज लाऊं या असमर्थ? गुरु ने कहाअभी मुझे बीजों से प्रयोजन नहीं है, केवल तुम्हारी परीक्षा कर रहा था। तुम उत्तीर्ण हुए हो। गुरु शिष्य को पद, अक्षर, उद्देशक, संधि (अध्याय), सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ बताते हैं, अक्षरव्यंजन से शुद्ध पाठ पढ़ाते हैं। फिर ग्रहण-स्मरण की परीक्षा हेतु कहते हैं-उच्चारण करो। यदि वह जैसा ग्रहण किया है, उसी रूप में सारा पाठ सुना देता है, तो उसे ग्रहण-धारण में कुशल मानते हैं। इस प्रकार गुरु परीक्षा कर, योग्य जानकर उसे भेजते हैं और कहते हैं-जाओ, उन आलोचना-आकांक्षी आचार्य की आलोचना सुनकर लौट आओ। वह शिष्य वहां जाता है। आलोचक प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र- ० आज्ञा व्यवहार की एक अन्य व्याख्या आज्ञाव्यवहारो नाम यदा द्वावप्याचार्यावाऽऽसेवितसूत्रार्थतयातिगीतार्थों क्षीणजंघाबलौ व्यवहारक्रमानुरोधतः प्रकृष्टदेशान्तरनिवासिना च तौ एवान्योन्यस्य समीपं गन्तुमसमर्थावभूतां, तदान्यतरस्मिन् प्रायश्चित्ते समापतिते सति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्याभावे सति धारणाकुशलमगीतार्थमपि शिष्यं गूढार्थान्यतिचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति। एवं तेन कथितेन आचार्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं वागमनं करोति शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थं प्रज्ञाप्य प्रेषयति, तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारविशुद्धिं कथयति। (व्यभा ९ की वृ) जो सूत्र-अर्थ के विशिष्ट ज्ञाता एवं प्रयोक्ता होने के कारण महान् गीतार्थ हैं, ऐसे दो आचार्य भिन्न-भिन्न प्रदेशों में स्थित हैं। वे क्षीण जंघाबल के कारण एक-दूसरे के पास जाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त व्यवहार का प्रसंग उपस्थित होने पर आचार्य योग्य गीतार्थ शिष्य को और उसके अभाव में धारणाकशल शिष्य को अतिचार-आसेवन स्थानों को गूढ अर्थ वाले पदों में बताकर उनके पास भेज देते हैं। इस प्रकार आगंतुक शिष्य के निवेदन करने पर आचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धृति, बल आदि का विचार कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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