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________________ आगम विषय कोश-२ ५२७ वैयावृत्त्य सोऊण वा गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए। अमुक द्रव्य पथ्य है और इस रोगी के लिए अमुक द्रव्य समाधिकारक जति तुरियं णागच्छति, लग्गति गुरुए सवित्थारं॥ है। फिर उस द्रव्य की प्रयत्नपूर्वक गवेषणा करनी चाहिए। जह भमर-महुयर-गणा, णिवतंति कुसुमितम्मि वणसंडे। जायंते उ अपत्थं, भणंति जायामों तं न लब्भइ णे। तह होति णिवतियव्वं, गेलण्णे कतितवजढेणं॥ विणियदृणा अकाले, जा वेल न बेंति उ न देमो॥ साहम्मियवच्छल्लं कयं, अप्पा य णिज्जरादारे णितो- पडिलेह पोरुसीओ, वि अकाउं मग्गणा उ सग्गामे।... तिओ भवति। (निभा २९७०, २९७१ चू) (बृभा १९०१, १९०३) जो भिक्षु किसी श्रमण को बीमार सुनकर उसकी गवेषणा ग्लान मुनि यदि अपथ्य द्रव्य की मांग करे तो सेवादायी नहीं करता अथवा उन्मार्ग-मूल मार्ग को छोड़कर प्रतिमार्ग- मुनि (मनोवैज्ञानिक ढंग से बर्ताव करते हुए) कहें-हमने इसकी पगडंडी से चला जाता है और जाने वाले का अनुमोदन करता है, गवेषणा-याचना की है किन्तु हमें यह पदार्थ प्राप्त नहीं हुआ वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। अथवा ग्लान के सामने पात्र लेकर उपाश्रय के बाहर जाकर लौट यदि कोई मनि मार्ग में जा रहा हो. गांव में प्रवेश कर रहा आएं । ग्लान से कहें-अकाल में जाकर याचना करने से वस्त नहीं हो या भिक्षाटन कर रहा हो, उस समय किसी रो मिलती। जब तक भिक्षा का समय नहीं होता है. तम प्रतीक्षा करो। मिलते ही यदि वह तत्काल वहां नहीं पहुंचता है, तो उसे 'हम अमुक द्रव्य लाकर नहीं देंगे'-ऐसा न कहें। विस्तारयुक्त गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ग्लान प्रायोग्य द्रव्य सुलभ होने पर सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी जैसे गुंजार करते मधुकर कुसुमित वनखंड में पहुंच जाते करके तथा द्रव्य दुर्लभ होने पर दोनों ही पौरुषी किए बिना अपने हैं वैसे ही धर्मतरुरक्षक मनि निश्छलभाव से ग्लान की सेवा में ग्राम में अनवभाषित द्रव्य की गवेष पहुंच जाते हैं। इसके मुख्य दो फलित हैं-साधर्मिक वात्सल्य का १४. मुनि और वैद्य प्रकटीकरण और निर्जराकार्य में आत्मनियोजन। संविग्गमसंविग्गे, दिट्ठत्थे लिंगि सावए सण्णी। १३. पलानप्रायोग्य द्रव्य की गवेषणा अस्सण्णि इड्डि गइरागई य कुसलेण तेगिच्छं। जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठियस्स सएण लाभेण लिंगत्थमाइयाणं, छण्हं वेज्जाण गम्मऊ मूलं । असंथरमाणस्स, जो तस्स न पडितप्पति॥"गिलाणपाउग्गे संविग्गमसंविग्गे, उवस्सगं चेव आणेज्जा॥ दव्वजाए अलब्भमाणे, जो तं न पडियाइक्खति""चाउम्मा 'संविग्नः' उद्यतविहारी... 'श्रावकः' प्रतिपन्नाणुव्रतः सियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं। (नि २०/३२, ३३, ४१) 'संज्ञी' अविरतसम्यग्दृष्टि: 'असंज्ञी' मिथ्यादृष्टिः, स च त्रिधा-अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः अभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः __ जो भिक्षु रुग्ण मुनि की सेवा में उपस्थित हो, उसे पर्याप्त परतीर्थिकश्चेति।"दृष्टार्थो गीतार्थ इत्यर्थः।"यः संविग्नः स आहार उपलब्ध न हुआ हो, इस स्थिति में वह रुग्ण मुनि को गीतार्थो वा स्यादगीतार्थो वा। एवमसंविग्न-लिंगस्थआहार से तृप्त नहीं करता है। रुग्ण मुनि ने कोई द्रव्य मंगवाया, श्रावक-संज्ञिष्वपि गीतार्थत्वमगीतार्थत्वं अनभिगृहीतादयस्तु वह द्रव्य उपलब्ध नहीं हुआ, रुग्ण मुनि को पुनः उसकी सूचना त्रयोऽपि नियमादगीतार्थाः। 'गत्यागतिः' चारणिका... नहीं देता है-वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। तद्यथा-प्रथमं संविग्नगीतार्थेन चिकित्साकर्म कारयितदव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति। व्यम्, अथासौ न लभ्यते ततोऽसंविग्नगीतार्थेन "एते च णायम्मि य दव्वम्मि, गवेसणा तस्स कायव्वा॥ पर्वमनद्धिमन्तो गवेषणीयाः न ऋद्धिमन्तः, तदीयगृहेषु दःप्रवेश (बृभा ३७७९) तया बहदोषसद् भावात्। (बृभा १९११, १९१७ वृ) सेवाभावी को सर्वप्रथम यह जानना चाहिए कि इस रोग में मनि संबंधी वैद्य के आठ प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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