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________________ वैयावृत्त्य के व्यवहारनय के अनुसार वस्तु (व्यक्ति) की गुणवत्ता आधार पर यथाक्रम से विपुल निर्जरा होती है। यह श्रुतवान है, यह अतिशय श्रुतधारी है, यह सुखोचित होने पर भी बाह्य - आभ्यंतर तप में तथा ज्ञान आदि गुणों में उद्यमी है - इस रूप में महान् गुणी प्रति जिसका जैसा मानसिक प्रसन्नता का भाव होता है, उसके उतनी निर्जरा होती है । निश्चय नय के अनुसार भावधारा के आधार पर निर्जरा होती है । अल्पगुणी वस्तु में भी जिसकी शुभ भावधारा तीव्रतम होती है, उसके विपुल निर्जरा होती है। ० वीर - गौतम - कपिलसुत दृष्टांत जिण - गोतमसीहआहरणं ॥ सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग ति । जिणवीरकहणमणुवसम, गोतमोवसम दिक्खा य॥ (व्यभा २६३७, २६३८ ) श्रमण महावीर ने त्रिपृष्ठ के भव में एक सिंह को मारा। मरते हुए सिंह को इस बात का दुःख हुआ कि मैं एक तुच्छ व्यक्ति द्वारा मारा गया हूं। गौतम ने (उस भव में सारथि के रूप में) उसे आश्वस्त करते हुए कहा- धैर्य मत खोओ। तुम पशुसिंह हो और नरसिंह (वासुदेव) द्वारा मारे गए हो। इसमें कौन सा पराभव है? वही सिंह संसारभ्रमण करता हुआ राजगृह में कपिल ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ। एक बार वह कपिलपुत्र भगवान महावीर के समवसरण में आया। भगवान को देख वह धम-धम करने लगा। महावीर के कहने से शांत नहीं हुआ, तब महावीर ने गौतम को भेजा । गौतम ने उसे यह कहते हुए शांत कर दिया कि ये महान् आत्मा हैं, तीर्थंकर हैं। इनकी आशातना से दुर्गति होती है। फिर वह दीक्षित भी हो गया। महागुणी महावीर की अपेक्षा अल्पगुणी (गौतम) के प्रति उसकी भावधारा अत्यन्त विशुद्ध हो गई और उसे महानिर्जरा हुई। ६. साधु-साध्वी की परस्पर सेवा - विधि जे निग्गंथा य निग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो पहं कप्पइ अण्णमण्णस्स वेयावच्चं कारवेत्तए अत्थियाई थ Jain Education International आगम विषय कोश- २ केइ वेयावच्चकरे कप्पड़ पहं वेयावच्चं कारवेत्तए नत्थियाई त्थ केइ वेयावच्चकरे एव ण्हं कप्पड़ अण्णमण्णस्स वेयावच्चं कारवेत्तए ॥ (व्य ५/२०) सांभोजिक साधु-साध्वी परस्पर एक-दूसरे का वैयावृत्त्य नहीं कर सकते । स्वपक्ष में वैयावृत्त्यकर हो तो उसी से वैयावृत्त्य करवाया जाता है। स्वपक्ष में वैयावृत्त्यकर न हो तो निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी परस्पर वैयावृत्त्य करवा सकते हैं। संबंधिणि गीतत्था, ववसायि थिरत्तणे य कतकरणा । चिरपव्वइया य बहुस्सुता परीणामिया जाव ॥ गंभीरा मद्दविता, मितवादी अप्पकोउहल्ला य । साधुं गिलाणगं खलु, पडिजग्गति एरिसी अज्जा ॥ ववसायी कायव्वे, थिरा उ जा संजमम्मि होति दढा । कतकरण जीय बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला ॥ चिरपव्वइयसमाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी । परिणामिय परिणामं, सा जाणति पोग्गलाणं तु ॥ काउं न उत्तुणई, गंभीरा मद्दविया अविम्हइया । कज्जे परिमियभासी, मियवादी होइ अज्जा उ॥ कक्खतं गुज्झादी, न निरिक्खे अप्पकोउहल्ला य। एरिसगुणसंपन्ना, साहूकरणे भवे जोग्गा ॥ (व्यभा २३८६ - २३९१ ) ५२२ बारह गुणों से सम्पन्न साध्वी साधु-सेवा के योग्य है१. संबंधिनी - ग्लान मुनि की भगिनी आदि । २. गीतार्था - एषणीय - अनेषणीय विधि में कुशल । ३. व्यवसायिनी - अध्यवसायिनी / श्रमशीला । ४. स्थिरा - संयम में सुदृढ़ । ५. कृतकरणा - अनेक बार अभ्यास के कारण वैयावृत्त्य में दक्ष । ६. चिरप्रव्रजिता - तीन वर्ष से अधिक दीक्षापर्याय वाली। ७. बहुश्रुता - निशीथधारिणी । ८. परिणामिकी - पुद्गलों की परिणतियों को जानने वाली । ९. गंभीर - कृतसेवा का प्रकाशन नहीं करने वाली। १०. मृदुशीला - मार्दवसम्पन्न, विस्मित नहीं होने वाली । ११. मितवादिनी - प्रयोजन होने पर परिमितभाषिणी । १२. अल्पकुतूहल - गुप्तांगों का निरीक्षण न करने वाली । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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