SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम विषय कोश-२ ५११ विहार १. षड्कायविराधना से चारित्र का। स्थापितानि काञ्चिदपि पीडां न कुर्वन्ति, एवं यूयमपि मम २. प्रचुर आहार के भक्षण से ग्लान होकर आत्मा का। कमपि भारं न कुरुथ। (बृभा २८९७ वृ) ३. अयतना से व्युत्सर्ग आदि करने से प्रवचन का। मुनि सार्थ के साथ प्रस्थान करने से पूर्व सार्थाधिपति से अथवा सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का। कहते हैं-'यदि आप हमारा योगक्षेम वहन करना स्वीकार करते अथवा उद्गम, उत्पादन और एषणा की शुद्धि का। हैं तो हम आपके साथ चलने के लिए तैयार हैं।' सार्थाधिपति इसे अपुव्वस्स अगहणं, न य संकिय पुच्छणा न सारणया। स्वीकार करता है तो वह शुद्ध सार्थ है। वह कहता है-जैसे सिर गुणयंते अ अदटुं, सीदइ एगस्स उच्छाहो॥ पर स्थापित सर्षप और चम्पकपष्प किञ्चित भी पीडाकारी नहीं चरगाई वुग्गाहण, न य वच्छल्लाइ दंसणे संका। होते, वैसे ही आप हमारे लिए भारभूत नहीं हैं। थी सोहि अणज्जमया, निप्पग्गहया य चरणम्मि॥ सामन्ना जोगाणं, बज्झो गिहिसन्नसंथओ होड। १०. रात्रि में विहार-निषेध दंसण-नाण-चरित्ताण मइलणं पावई एक्को॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा (बृभा ६९९-७०१ वृ) वियाले वा अद्धाणगमणं एत्तए॥ (क १/४४) अगीतार्थ एकलविहारी अभिनव ज्ञान का ग्रहण नहीं कर साधु-साध्वी रात्रि या विकाल में विहार नहीं कर सकते। पाता, क्योंकि उस ज्ञान को देने वाला कोई नहीं होता। सूत्र और ११. ऋतुबद्धिक क्षेत्र और मासकल्प विहार । अर्थ विषयक शंका होने पर किसी के पास पृच्छा का अवकाश .."णिक्खमणे य पवेसे, पाउस-सरए य वोच्छामि। नहीं होता। सूत्र और अर्थ का परावर्तन करते समय अशुद्धि के ऊणातिरित्तमासे, अट्ठ विहरिऊण गिम्ह-हेमंते। लिए सचेत करने वाला कोई नहीं होता। दूसरे मुनियों को परावर्तन एगाहं पंचाहं, मासं च जहा समाहीए। करते हुए न देखकर स्वयं का उत्साह भी मंद हो जाता है। काऊण मासकप्पं, तत्थेव उवागयाण ऊणा उ.... एकाकी अगीतार्थ मुनि को चरक आदि अन्यतीर्थिक अपनी वासाखेत्तालंभे ....................... कुयुक्तियों के द्वारा भ्रमित कर सकते हैं। एकाकी होने के कारण पडिमापडिवण्णाणं, एगाहो पंच होतऽहालंदे। वह साधर्मिक मुनियों के प्रति वात्सल्य तथा उनका उपबृंहण, जिण-सुद्धाणं मासो, णिक्कारणतो य थेराणं॥ स्थिरीकरण आदि नहीं कर सकता। उसके मन में शंका आदि दोष ऊणातिरित्तमासा, एवं थेराण अट्ठ णायव्वा। उत्पन्न होने पर दर्शन परित्यक्त हो जाता है। एकाकी होने के कारण स्त्री-संबंधी दोष भी उत्पन्न हो इयरेसु अट्ठ रियितुं, णियमा चत्तारि अच्छंति॥ सकते हैं। अपराध की शोधि के लिए वह प्रायश्चित्त किससे ले? (निभा ३१४३-३१४८) प्रायश्चित्त के बिना विशोधि नहीं होती। सारणा के बिना उद्यमशीलता मुनि ऋतुबद्ध क्षेत्र से प्रावृट् में निष्क्रमण कर वर्षाक्षेत्र में मंद हो जाती है। गुरु की आज्ञा के नियंत्रण से मुक्त होने के कारण प्रवेश करते हैं तथा वर्षाक्षेत्र से शरद् में निष्क्रमण कर ऋतुबद्ध क्षेत्र उसका चारित्र परित्यक्त हो जाता है। में प्रवेश करते हैं। जिनको जैसे ज्ञान-दर्शन-चारित्र-समाधि होती एकाकी मुनि विनय, वैयावृत्त्य आदि श्रामण्य योगों से बाह्य है, वे वैसे विहरण कर वर्षाक्षेत्र में जाते हैं। । हो जाता है। वह गृहस्थों के समाचरण से परिचित हो जाता है। ऋतुबद्धकाल में प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार एक दिन, यथालंदिक । उसमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र की मलिनता आ जाती है। पांच दिन तथा जिनकल्पिक, शुद्धपारिहारिक और स्थविरकल्पिक ९. मुनि और शुद्ध सार्थ एक मास तक एक स्थान में रहकर विहार करते हैं। इस प्रकार सिद्धत्थग पुप्फे वा, एवं वुत्तुं... ॥ आठ मास (हेमंत के चार मास और ग्रीष्म के चार मास) विहरण यथा 'सिद्धार्थाः' सर्षपाश्चम्पकपुष्पाणि वा शिरसि करते हैं। इनमें न्यूनाधिकता भी हो सकती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy