SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाचना ५०० आगम विषय कोश-२ कालिकश्रुत और पूर्वो का कहीं विच्छेद न हो जाए-इस वाद-मत, दर्शन। शास्त्रार्थ, परिचर्चा । अपेक्षा से उत्क्रम से भी वाचना दी जा सकती है। किन्तु वाचनाग्राही शिष्य प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्नस्वभावी, निसर्गतः परिणामक, १. वाद किसके साथ? २. वादी की अर्हता विनीत और परम मेधावी होना चाहिए। ३. वाद के अनर्ह : चाणक्य-नलदाम दृष्टांत ० समवसरण : आगमग्रंथ सुत्तत्थ तदुभयाणं, ओसरणं अहव भावमादीणं।... १. वाद किसके साथ? समोसरणं णाम मेलओ, सो य सुत्तत्थाणं, अहवा अजेण भव्वेण वियाणएण, धम्मप्पतिण्णेण अलीयभीरुणा। जीवादिणवपदत्थभावाणं, अहवा दव्वखेत्तकालभावा, एए सीलंकुलायारसमन्नितेण, तेणं समं वाद समायरेज्जा। जत्थ समोसढा सव्वे अस्थित्ति वुत्तं भवति, तं समोसरणं . (व्यभा ७१२) भण्णति। (निभा ६१८१ चू) वाद (शास्त्रार्थ या परिचर्चा) उसके साथ करना चाहिए, समवसरण का अर्थ है सूत्र और अर्थ का मिलन अथवा . जो आर्य है-श्रेष्ठ कर्म या अनिंदनीय कर्म करता है। जिनमें जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों के अस्तित्व की सिद्धि आदि जो भव्य है-जिसने वाद की योग्यता संपादित की है। का निरूपण हो, अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ० जो विज्ञ है-वाद का ज्ञाता है। निरूपण हो, वे आचारांग आदि ग्रन्थ समवसरण कहलाते हैं। ० जो धर्मप्रतिज्ञ है, जिसका न्याय करने का संकल्प है। १४. वाचना-स्वाध्याय से लाभ ० जो सत्यवादी है, शीलाचार-कुलाचार से समन्वित है। वायंतस्स उ पणगं, पणगं च पडिच्छतो भवे सुत्तं। २. वादी की अर्हता एगग्गं बहुमाणो, कित्ती य गुणा य सज्झाए॥ वाया पोग्गललहुया, मेधा उज्जा य धारणबलं च। संगहुवग्गहनिज्जर, सुतपज्जवजायमव्ववच्छित्ती।। तेजस्सिता य सत्तं, वायामइयम्मि संगामे॥ पणगमिणं पुव्वुत्तं, जे चायहितोपलंभादी॥ (व्यभा ७५८) (व्यभा १७८४, १७८५) वाङ्मय संग्राम में उपयोगी सामग्री इस प्रकार हैसत्र-अर्थ की वाचना देने-लेने से पांच लाभ होते है ० वाक्पाटव-व्यक्त स्पष्ट अक्षर-वाक्। ० संग्रह-श्रुतसम्पन्नता से शिष्यों का संग्रहण सकर होता है। ० पुद्गललघुता-शरीर की जड़ता का अपगम। ० उपग्रह-श्रुतज्ञान दान से संघ का उपष्टम्भ होता है। ० मेधा-अपूर्व-अपूर्व ऊहापोहात्मक ज्ञानविशेष। ० निर्जरा-ज्ञानावरण आदि कर्मों का निर्जरण होता है। • ऊर्जा-प्रवर्धमान बल, आंतरिक उत्साह विशेष । ० श्रुतपर्यवजात-श्रुतज्ञान के पर्यवों की वृद्धि होती है। ० धारणाबल-प्रतिवादी के शब्दार्थ अवधारण की शक्ति । ० अव्यवच्छित्ति-तीर्थ परम्परा अविच्छिन्न रहती है। ० तेजस्विता-शरीर की स्फूर्तिमयी दीप्यमानता। अथवा पांच गुण ये हैं-आत्महित, परहित और उभयहित ० सत्त्व-प्रतिवादी द्वारा प्राणव्यपरोपिणी विद्या प्रयुक्त होने पर भी की उपलब्धि, एकाग्रता तथा बहुमान। __उसके मानमर्दन हेतु उपष्टम्भ, अविचल धृति।। ० एकाग्रता-वाचक और श्रोता की श्रुत में गहरी एकाग्रता से * बाबी का सेवन : मेधा-विकास द्र चिकित्सा चैतसिक चंचलता का निरोध होता है। ३. वाद के अनर्ह : चाणक्य-नलदाम दृष्टांत ० बहुमान-श्रुत और अर्हत् के प्रति बहुमान प्रकट होता है। अत्थवतिणा निवतिणा, पक्खवता बलवया पयंडेण। स्वाध्याय से आर्यवज्र की भांति विश्वव्यापिनी कीर्ति गुरुणा नीएण तवस्सिणा य सह वज्जए वादं॥ होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy