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________________ आगम विषय कोश - २ हुआ पूछता है - इस विधि से सूत्र और अर्थ ग्रहण करने वाला क्रमशः लघुमास और गुरुमास प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। नाभि के ऊपर के अवयवों को खुजलाता हुआ सूत्र और अर्थ को सुनता है, उसके लिए क्रमशः चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। नाभि से नीचे के अवयवों को खुजलाता हुआ सूत्र श्रवण करता है, उसको चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अतः अविनय के इन सब स्थानों का वर्जन कर बद्धांजलि हो, उत्कुटुक आसन में बैठ प्रयत्नपूर्वक (आदरपूर्वक) सूत्रश्रवण करना चाहिए और कृतिकर्म भी अवश्य करना चाहिए। उट्ठाण-सेज्जा-ऽऽसणमाइएहिं गुरुस्स जे होंति सयाऽणुकूला । नाउं विणीए अह ते गुरू उ, संगिण्हई देइ य तेसि सुत्तं ॥ (बृभा ४४३५) गुरु को आते हुए देखकर खड़ा होना, गुरु का शय्यासंस्तारक सम व सुन्दर स्थान पर करना, उपवेशन योग्य निषद्या करना, गुरु की शय्या और आसन से नीचे स्वयं की शय्या व आसन करना, हाथ जोड़ना - इस विनयपरिपाटी से जो शिष्य सदा गुरु के अनुकूल होते हैं, उनको विनीत जानकर गुरु 'ये मेरे द्वारा सम्यक् पालनीय रक्षणीय हैं' इस संग्रहबुद्धि से उन्हें स्वीकार करते हैं और वाचना देते हैं। ५. ज्ञान हेतु स्थविर भी कृतिकर्म करे सुत्तम्मिय चउलहुगा, अत्थम्मि य चउगुरुं च गव्वेणं । कितिकम्ममकुव्वतो, पावति थेरो सति बलम्मि ॥ उवयारहीणमफलं, होति निहाणं करेति वाऽणत्थं । इति निज्जराऍ लाभो, न होति विब्भंग कलहो वा ॥ (व्यभा २३३८, २३३९) स्थविर किसी समरानिक या अवमरानिक के पास सूत्र या अर्थ का प्रत्युज्वालन ( पूछना, सीखना) करता है या नया पाठ ग्रहण करता है, उस समय वह शक्ति होने पर भी ज्ञानदाता के प्रति उचित विनयपरिपाटी का निर्वाह नहीं करता है, अभिमानवश कृतिकर्म-वन्दना नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता हैके सन्दर्भ में चतुर्लघु और अर्थ के संदर्भ में चतुर्गुरु । सूत्र निधान का उत्खनन करने वाला तदनुरूप उपचार नहीं करता है तो उसे निधान प्राप्त नहीं होता । वृश्चिक आदि के Jain Education International ४९५ उपद्रव के कारण अनर्थ भी हो जाता है। इसी प्रकार कृतिकर्म आदि उपचार विनय के अभाव में निर्जरा का महान् लाभ प्राप्त नहीं होता, ज्ञान विपरीत हो जाता है । प्रान्त देवता कुपित होकर उससे कलह कर सकता है। वाचना ६. स्थविर के प्रति वाचनाचार्य का दायित्व तेण वि धारेतव्वं, पच्छावि य उट्ठितेण मंडलिओ । वेदुट्ठनिसण्णस्स व सारेतव्वं हवति भूओ ॥ अह से रोगो होज्जा, ताहे भासंत एगपासम्म । सन्निसण्णो तुयट्टो, व अच्छते णुग्गहपवत्तो ॥ . सोतु गणी अगणी वा अणुभासंतस्स सुणति पासम्मि । न चएति जुण्णदेहो, होउं बद्धासणो सुचिरं ॥ (व्यभा २३४४, २३४५, २३४७) स्थविर ने सूत्रमंडली या अर्थमंडली में जो कुछ सुना है, उस मंडली से उठने के पश्चात् भी वह उसका धारण-स्मरण करे । स्थविर बैठे, खड़े या लेटे हुए उस पाठ का स्मरण करता है, इस अंतराल में वह कुछ भूल जाता तो वाचनाचार्य का कर्त्तव्य है कि उसे विस्मृत पाठ का पुनः स्मरण कराये | यदि स्थविर रुग्ण है तो वह व्याख्यामंडली से उठकर भाषक - अनुभाषक (वाचनाचार्य या पुनरावर्त्तक) के एक पार्श्व में निषद्या पर सम्यग्रूप से स्थित होकर अथवा लेटकर उनके अनुग्रह में प्रवृत्त होता है। वह इस अवस्थिति में पाठ सुन सकता है। यह भाषक का अनुग्रह है। यह अनुग्रह गणी हो या अगणी, सब पर किया जाता है क्योंकि जीर्ण देह वाला लम्बे समय तक एक आसन में नहीं बैठ सकता। ७. वाचनाचार्य के प्रकार : सिंहानुग आदि सीहाणुग-व -वसभ - कोल्लुगाणूए । तत्थ जो महंतणिसिज्जाए ठितो सुत्तमत्थं वाएति चिट्ठइ वा सो सीहाणुगो। जो एक्कंमि कप्पे ठितो वाएति चिट्ठइ वा सो वागो । जो यहरणणिसेज्जाए उवग्गहियपादपुंछणे वा ठितो वाएति चिट्ठति वा सो कोल्लुगाणुगो। (निभा ६६२८ चू) आचार्य के तीन प्रकार हैं सिंहानुग - जो महान् निषद्या पर स्थित हो वाचना देते हैं। वृषभानुग — जो एक कल्प पर बैठकर वाचना देते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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