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________________ मन देखकर अधिकृत विद्या अधिष्ठात्री अथवा अन्य क्षुद्र देवता उस प्रसंग पर विद्यासाधक का अवध्वंस कर सकती है। निधिमुत्खनितुकामो विद्यां मन्त्रं वा साधयितुकामो यदि द्रव्य-क्षेत्र - काल- भावयुक्तमुपचारं करोति, तद्यथा - द्रव्यतः पुष्पादिषु, क्षेत्रतः श्मशानादिषु, कालतः कृष्णपक्षचतुर्दश्यादिषु, भावतः प्रतिलोमानुलोमोपसर्गसहिते, तदा निधिं विद्यां मन्त्रं वा साधयति । (बृभा २० की वृ) जो खजाने का उत्खनन करना चाहता है, अथवा विद्या-मंत्र को सिद्ध करना चाहता है, वह यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संबंधित उपचार करता है, जैसे-पुष्प आदि द्रव्यों, श्मशान आदि क्षेत्रों, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आदि तिथियों में तथा भावतः अनुकूलप्रतिकूल उपसर्ग सहन करता है, तो निधि को प्राप्त कर लेता है। अथवा विद्या - मंत्र को साध लेता है। ..... पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । अण्णं पि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥ चाउदसीगहो होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं । ......मासस्य मध्यं पाक्षिकं तच्च कृष्णचतुर्दशीरूपम् तत्र प्रायो विद्यासाधनोपचारभावात् बहुलादिका मासाः एतेषु च पर्वसु विद्यासाधनप्रवृत्तेः । कोऽपि विद्याया ग्रहश्चतुर्दश्यां भवति अथवा षोडश्यां शुक्लपक्षप्रतिपदि विद्याया ग्रहणम् । (व्यभा २६९८, २६९९ वृ) पर्वतिथियों में विद्याओं का ग्रहण अथवा परावर्तन किया जाता है । मास और अर्धमास मध्य की तिथियां पर्व कहलाती हैंपक्ष की मध्यतिथि अष्टमी मास की मध्य तिथि चतुर्दशी । विद्यासाधना प्रायः कृष्ण पक्ष में होती है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण भी पर्व हैं। इन पर्व दिनों में विद्या साधी जाती है। कोई विद्या का ग्रहण कृष्णा चतुर्दशी को और कोई शुक्ला प्रतिपदा को करता है। मतिज्ञान - आभिनिबोधिक ज्ञान, इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान । * मतिसम्पदा क्षिप्र अवग्रह आदि : Jain Education International ४५८ माध्यम द्र ज्ञान द्र गणिसम्पदा आगम विषय कोश - २ मन - शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण करने वाला कालिक संज्ञान । मनोद्रव्य से उपरंजित चित्त । १. मन का विषय २. मनोलब्धि और मनोवर्गणा ३. मन : बन्धन-मुक्ति का हेतु ४. मनपरिणामों की विचित्रता ५. मन की एकाग्रता का हेतु * मन चंचल क्यों * मन विकास का क्रम द्र ध्यान द्र ज्ञान १. मन का विषय यस्य तत्तथा । अत्थाणंतरचारिं, नियतं चित्तं तिकालविसयं तु । अर्थे - शब्दादाविन्द्रियव्यापारादनन्तरं चरति इन्द्रिये प्रथमं व्यापृते पश्चान्मनो व्याप्रियते नियतार्थविषयंनैककालमनेकविषयम् त्रिष्वपि कालेषु यथायोग्यं विषयो (बृभा ४० वृ) ० मन अर्थानंतरचारी है- वह शब्द आदि विषयों में इन्द्रियप्रवृत्ति के पश्चात् प्रवृत्त होता है। (स्वप्न आदि में इन्द्रियव्यापार के अभाव में भी केवल मन की स्वतंत्र रूप से प्रवृत्ति होती है ।) • मन नियतार्थ विषय वाला है - एक काल में अनेक विषय वाला नहीं है। (एक साथ दो क्रियाएं, दो उपयोग नहीं हो सकते।) • मन त्रिकालवर्ती विषयों को जानता है। (इसके द्वारा अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिन्तन और भविष्य की कल्पना - इन तीनों कालखंडों का ज्ञान होता है, अतः इसे कालिकी अथवा दीर्घकालिकी संज्ञा कहा गया है। - श्रीआको १ मन ) २. मनोलब्धि और मनोवर्गणा खंधेऽणंतपसे, मणजोगे गिज्झ गणणतोऽणंते । तल्लद्धि मणेति तहा, भासादव्वे व भासते ॥ ......मुच्छित मत्ते, पासुत्ते वावि होइ उवलंभो । इय होति असन्नीणं, उवलंभो इंदिया जेसिं ॥ (बृभा ७९, ८२) जैसे भाषालब्धिक जीव भाषाद्रव्यों को ग्रहण कर बोलता है, वैसे ही मनोलब्धिसम्पन्न जीव मन के योग्य अनंतप्रदेशी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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