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________________ आगम विषय कोश-- २ श्रद्धा नहीं करता, जिसकी मति यथार्थ रूप से परिणत नहीं होती, केवल उत्सर्ग मार्ग में ही परिणत होती है, वह अपरिणामक शिष्य है। अतिपरिणामक शिष्य - जो अर्हत्-प्रज्ञप्त द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत उत्सर्ग और अपवाद मार्गों में केवल अपवाद मार्ग की गवेषणा करता है और उसको अपनी मति से कल्पनीय ( आचरणीय) मान लेता है, उसी का आलंबन लेता है, जिसकी उत्सूत्र मति - श्रुतोक्त अपवाद से अत्यधिक अपवाद वाली बुद्धि होती है, वह अतिपरिणामक शिष्य होता है। ३. परिणामक शिष्य के प्रकार आणा दितेण य, दुविधो परिणामगो समासेणं । तमेव सच्छं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं । आणाए एस अक्खातो, जिणेहिं परिणामगो ।। परोक्खं हेउगं अत्थं, पच्चक्खेण उ साहयं । जिणेहिं एस अक्खातो, दिट्टंतपरिणामगो ॥ (व्यभा ४६०७-४६०९) परिणामक शिष्य दो प्रकार के होते हैं१. आज्ञापरिणामक - 'वही सत्य है, जो अर्हतों द्वारा प्रज्ञप्त है', इस रूप में जो असंदिग्ध भाव से श्रद्धा करता है, वह आज्ञापरिणामक है। २. दृष्टांत परिणामक – जो हेतुगम्य परोक्ष पदार्थ को प्रत्यक्ष प्रसिद्ध दृष्टांत से बुद्धि में आरोपित करता है, उस पर श्रद्धा करता है, उसे अर्हतों ने दृष्टांतपरिणामक कहा है। ४. परिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा ....... अंबाईदितो, कहणा य इमेहिं ठाणेहिं ॥ चेयणमचेयण भाविय, केद्दह छिन्ने अकित्तिया वा वि । लद्धा पुणो व वोच्छं, वीमंसत्थं व वुत्तो सि ॥ किं ते पित्तपलावो, मा बीयं एरिसाई जंपाहिं । माणं परो वि सोच्छिहि, कहं पि नेच्छामो एयस्स ॥ कालो सिं अइवत्त, अम्ह वि इच्छा न भाणिउं तरिमो । किं एच्चिरस्स वुत्तं, अन्नाणि वि किं व आणेमि ॥ नाभिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेवं भाससी वयणे । सुत्तंबिल-लोणकर, भिन्ने अहवा वि दोच्चंगे ॥ ५ Jain Education International अंतेवासी निप्फाव - कोहवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे | अंबिल विद्वत्थाणि अ, भणामि न विरोहणसमत्थे ॥ (बृभा ७९२, ७९८-८०२) एक दिन आचार्य शिष्यों को वाचना दे रहे थे । उन्होंने परिणामक, अपरिणामक तथा अतिपरिणामक शिष्यों की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा- आर्यो ! हमें आम की आवश्यकता है। जो परिणामक शिष्य था, उसने आचार्य से निवेदन किया - भंते! कैसे आम लाऊं ? सचेतन या अचेतन ? भावित अथवा अभावित ? बड़े या छोटे ? पूर्व छिन्न अथवा छिन्न करवाकर ? कितनी संख्या में ? आचार्य ने कहा- आम तो पहले ही प्राप्त थे । अब कभी प्रयोजन होने पर कहूंगा। मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था। जो अपरिणामक शिष्य था, वह बोला- आचार्यवर! क्या आपको पित्त का प्रकोप हो गया है, जो आप असंबद्ध प्रलाप कर रहे हैं ? आज आपने मेरे समक्ष जो कहा, वह कह दिया, दूसरी बार ऐसे सावद्य वचन मत कहना। दूसरा कोई सुन न ले। हम तो आम की कथा भी सुनना नहीं चाहते । जो अतिपरिणामक शिष्य था, वह बोला- क्षमाश्रमण ! यदि आपको आम की आवश्यकता है, तो मैं अभी आम ले आऊंगा। अभी आम का मौसम है। आम तरुण हैं फिर वे कठोर हो जायेंगे। हमें भी आम की रुचि है परन्तु आपके भय से कह नहीं सके । यदि आम हमारे लिए ग्रहणीय है, तो फिर इतने समय के बाद आपने क्यों कहा? पहले ही कह देते। क्या बिजौरा आदि दूसरे फल भी ले आऊं ? आचार्य ने अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य की बात सुनकर उनसे कहा- तुमने मेरे अभिप्राय को नहीं समझा। मैंने अपनी बात पूरी भी नहीं की और तुम अनर्गल बोलने लग गए। मैंने कांजी अथवा लवण से भावित, टुकड़े किए हुए अथवा शाक रूप में पकाए हुए आम मंगाए थे, अपरिणत (अप्रासुक) नहीं। इसी प्रकार जब मैं कहता हूं कि निष्पाव, For Private & Personal Use Only कोद्रव आदि www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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