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________________ आगम विषय कोश--- २ असंख्येय समय की स्थिति वाले और भाव की अपेक्षा से वर्णगंध-रस-स्पर्श-युक्त होते हैं। वे इस प्रकार के भाषा द्रव्य ग्रहणजात कहलाते हैं । (भाषा के पुद्गलस्कंध छहों दिशाओं में विद्यमान आकाशप्रदेश की श्रेणियों से गुजरते हुए प्रथम समय में ही लोकांत तक पहुंच जाते हैं । ...... "निसृष्ट भाषाद्रव्य तीन, चार अथवा पांच समय में पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं । - श्रीआको १ भाषा भाषा का आदि स्रोत है जीव। वह जीव के वाक्प्रयत्न से पैदा होती है। भाषा शरीर से उत्पन्न होती है। वह वज्र संस्थान से संस्थित और लोकान्तपर्यवसित है । - प्रज्ञा ११ / ३० ) ४. भाषा-अभाषा .......पुव्वं भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासमयविइक्कंता भासिया भासा अभासा ॥ (आचूला ४ / ९ ) बोलने से पहले भाषा अभाषा है, बोलते समय भाषा भाषा है, बोलने का समय व्यतिक्रांत होने पर बोली गई भाषा अभाषा है। * भाषाद्रव्यवर्गणा द्र श्रीआको १ वर्गणा भाषासमिति — भाषा का सम्यक् प्रयोग । द्र समिति भिक्षाचर्या - गोचराग्रों, एषणाओं तथा अन्य अभिग्रहों के द्वारा भिक्षावृत्ति को संक्षिप्त करना । १. भिक्षाचर्या (अभिग्रह ) के प्रकार २. आठ गोचरभूमियां : ऋज्वी आदि * प्रतिमाधारी और भिक्षाचर्या * सात एषणाएं * जिनकल्प और एषणा ४४३ द्र भिक्षुप्रतिमा द्र पिण्डैषणा द्र जिनकल्प Jain Education International १. भिक्षाचर्या (अभिग्रह ) के प्रकार लेवडमलेवडं वा, अमुगं दव्वं च अज्ज घिच्छामि । अमुगेण व दव्वेणं, अह दव्वाभिग्गहो नाम ॥ अट्ठ उ गोयरभूमी, एलुगविक्खंभमित्तगहणं च । सग्गाम परग्गामे, एवइय घरा य खित्तम्मि ॥ काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सइ काले, आई बिइओ अ चरिमम्मि ॥ भिक्षाचर्या उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होंति । गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा ॥ ओसक्कण अहिसक्कण, परम्मुहाऽलंकिएयरो वा वि । भावन्नयरेण जुओ, अह भावाभिग्गहो नाम ॥ ....अभिग्रहो नाम भिक्षाग्रहणादिविषयः प्रतिज्ञाविशेषः । ''''एलुकः उदुम्बरस्तस्य विष्कम्भः आक्रमणं तन्मात्रेण मया ग्रहणं कर्त्तव्यमिति कस्याप्यभिग्रहो भवति, यथा भगवतः श्रीमन्महावीरस्वामिनः । उत्क्षिप्तं - पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोद्धृतं तद् ये चरन्ति - गवेषयन्ति ते उत्क्षिप्तचरकाः, आदिशब्दाद् निक्षिप्तचरकाः संख्यादत्तिका दृष्टलाभिका: पृष्टलाभका इत्यादयो गृह्यन्ते । त एते गुण-गुणिनो: कथञ्चिदभेदाद् भावयुताः खल्वभिग्रहा भवन्ति । चतुर्विधा अप्यभिग्रहास्तीर्थकरैरपि यथायोगमाचीर्णत्वाद् मोहमदापनयनप्रत्यलत्वाच्च गच्छ्वासिनां तथाविधसहिष्णुपुरुषविशेषापेक्षया महत्याः कर्मनिर्जराया निबन्धनं । (बृभा १६४८ - १६५०, १६५२, १६५३ वृ) भिक्षाग्रहण आदि विषयकं प्रतिज्ञाविशेष का नाम अभिग्रहभिक्षाचर्या है। इसके चार प्रकार हैं १. द्रव्यअभिग्रह - आज मैं अमुक लेपकृत या अलेपकृत द्रव्य लूंगा, अमुक दर्वी आदि से देने पर ही लूंगा । २. क्षेत्र अभिग्रह - ऋज्वी आदि आठ प्रकार की गोचर भूमियों में से किसी एक का संकल्प ग्रहण कर भिक्षा लूंगा। स्वग्राम अथवा परग्राम में इतने घरों में भिक्षार्थ प्रवेश करूंगा। दाता का एक पैर देहली के भीतर और एक पैर बाहर होगा तो भिक्षा लूंगा । भगवान् महावीर ने यह अभिग्रह किया था । (साधना का बारहवां वर्ष। भगवान् महावीर ने कौशाम्बी में पौष मास के पहले दिन कुछ अभिग्रह ग्रहण किए ० द्रव्यतः - शूर्प के कोने में उबले हुए उड़द हों । ० क्षेत्रत:- देने वाली देहली को विष्कंभित - आक्रांत किए हुए हो - एक पैर देहली के भीतर और एक पैर बाहर हो । ० कालतः - भिक्षा का काल अतिक्रांत हो चुका हो। ० भावतः - दासी बनी हुई राजकुमारी, हाथ-पैरों में बेड़ियां, मंडित सिर, आंखों में अश्रुधारा और तीन दिन की भूखी-ऐसी कन्या के हाथ से भिक्षा लूंगा, अन्यथा नहीं। पांच मास पचीस दिन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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