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________________ आगम विषय कोश-२ ४३७ भावना वेस-वयणेहिं हासं, जणयंतो अप्पणो परेसिं च। एगंतरमुप्पाए, अन्नोन्नावरणया दुवेण्हं पि। अह हासणो त्ति भन्नइ, घयणो व्व छले नियच्छंतो॥ केवलदंसण-णाणाणमेगकाले व एगत्तं॥ सुरजालमाइएहिं, तु विम्हयं कुणइ तव्विहजणस्स।। जच्चाईहिँ अवन्नं, भासइ वट्टइ न यावि उववाए। तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्ट-कुहेडएहिं च॥ अहितो छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुकूलो॥ (बृभा १२९५-१३०१) अविसहणाऽतुरियगई, अणाणुवत्ती य अवि गुरूणं पि। खणमित्तपीइ-रोसा, गिहिवच्छलकाऽइसंचइआ॥ जो कन्दर्पवान् और कौत्कुच्यवान् है, जो द्रवशील, हासन गृहइ आयसभावं, घाएइ गुणे परस्स संते वि। शील तथा परविस्मापक है, वह कान्दी भावना करता है। चोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो वितहभासी॥ ० कन्दर्प-अट्टहास करना, जो अपने अनुरूप हो, उसके साथ परिहास करना, निष्ठुर वक्रोक्ति से गुरु आदि के साथ संलाप (बृभा १३०२-१३०७) करना, काम से सम्बद्ध कथा करना, काम का उपदेश देना तथा जो ज्ञान का, केवली, धर्माचार्य और सर्वसाधुओं का काम की प्रशंसा करना-यह सब कन्दर्प कहलाता है। अवर्णवाद करता है, जो मायावी है, वह किल्विषिकी भावना ० कौत्कुच्य-इसके दो प्रकार हैं- कायिक और वाचिक। कायिक करता है। कौत्कुच्य करने वाला स्वयं न हंसता हुआ भ्रू, नयन, वदन, दांत, ० ज्ञान का अवर्णवाद-कुछ व्यक्ति श्रुत का अवर्णवाद इस रूप में बोलते हैं-आगमों में छहजीवनिकाय का प्ररूपण दशवैकालिक में ओष्ठ, हाथ, पैर, कान आदि अवयवों की ऐसी चेष्टा करता है, भी है, आचारांग में भी है। व्रतों का निरूपण भी अनेक अध्ययनों जिससे दूसरे लोग हंसने लगे। हास्य प्रधान शब्द बोलना, जिससे दूसरे हंसने लगें, मयूर, मार्जार, कोकिल आदि नाना प्रकार के में है। प्रमाद-अप्रमाद का प्ररूपण उत्तराध्ययन, आचारांग आदि में पशुओं की ध्वनि निकालना, मुख से वाद्य आदि की ध्वनि है। इस प्रकार पुनः पुनः प्ररूपण से पुनरुक्त दोष आता है। मोक्ष के अधिकारी साधुओं के लिए ज्योतिषशास्त्र (सर्यप्रज्ञप्ति आदि), निकालना-यह वाचिक कौत्कुच्य है। योनिप्राभूत जैसे ग्रन्थों से क्या प्रयोजन? ० द्रवशील-जो आवेशवश बिना विमर्श किए जल्दी-जल्दी बोलता केवली का अवर्णवाद-केवली के ज्ञान-दर्शन-उपयोग यदि है, शरदकालीन दर्प से उद्धत बैल की तरह निरंकुश होकर त्वरित क्रमशः माना जाये तो ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनों परस्पर गति से चलता है, प्रत्युपेक्षणा आदि सभी क्रियाओं में शीघ्रता एक-दूसरे के आवारक हो जाएंगे। यदि एक समय में युगपद् करता है, स्वभावस्थ होने पर भी दर्प के कारण अत्यंत चंचल-सा उपयोग माने जाएं तो साकारोपयोग और अनाकारोपयोग दोनों में लगता है, वह द्रवशील है। एकत्व हो जाएगा। दो नहीं रहेंगे-केवलज्ञान और केवलदर्शन। • हास्यकर-जो भाण्ड की भांति दूसरों के विरूप वेश और भाषा ० धर्माचार्य का अवर्णवाद-जो गुरु की जाति आदि को लेकर संबंधी विपर्ययों की अन्वेषणा कर उसी प्रकार के वेश और वचनों अवर्णवाद बोलता है, गुरु के उपपात में नहीं रहता, गुरु के दोषों से स्वयं में और प्रेक्षकों में हास्य पैदा करता है। का अन्वेषण करता है, उन्हें सबके समक्ष प्रकाशित करता है, • परविस्मापक-जो इन्द्रजाल, प्रहेलिका, वक्रोक्ति आदि के द्वारा अनुचित कार्य करता है, गुरु के अनुकूल वर्तन नहीं करता-वह मूर्खप्राय लोगों को विस्मित करता है, उनमें स्वयं विस्मित नहीं किल्बिषी भावना करता है। होता। ० साधु का अवर्णवाद-ये साधु किसी का पराभव सहन नहीं • दैवकिल्विषिकी भावना का स्वरूप करते, लोगों को आकृष्ट करने के लिए मंद-मंद चलते हैं, गुरु का नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं। अनुवर्तन नहीं करते, प्रकृति से ही निष्ठुर हैं, क्षणमात्र में तुष्ट होते माई अवन्नवाई, किदिवसियं भावणं कुणइ॥ हैं, क्षणमात्र में रुष्ट होते हैं, गृहिवत्सल हैं, वस्त्र आदि का अति काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य। संग्रह करते हैं--इस प्रकार साधुओं का अवर्णवाद करने वाला मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहिं किं च पुणो॥ किल्विषी भावना करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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