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________________ भावना प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ-ये अप्रशस्त भावभावनाएं है । ४. प्रशस्त भावना : दर्शन आदि दंसण-नाण-चरित्ते, तव वेरग्गे य होइ उ पसत्था ।'' (आनि ३५१ ) प्रशस्त भावनाएं हैं- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वैराग्य । ० दर्शन भावना - ज्ञान भावना तित्थगराण भगवओ, पवयण-पावयणि अइसइड्डीणं । अभिगमण गमिय दरिसण, कित्तण संपूयणा थुणणा ॥ गणियं णिमित्त जुत्ती, संदिट्ठी अवितहं इमं नाणं । इय एगंतमुवगया, गुणपच्चइया इमे गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुर-नरिंदपूया एसा दंसणे अत्था ॥ य। होति ॥ दिट्ठा । य ॥ "इति तत्तं जीवाजीवा, नायव्वा जाणणा इहं इह कज्ज-करण-कारगसिद्धी इह बंधमोक्खे बद्धो य बंधहेऊ, बंधण-बंधप्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचो वि य, इहयं कहिओ जिणवरेहिं ॥ नाणं भविस्सई एवमाइगा वायणाइयाओ य । सज्झाए आउत्तो, गुरुकुलवासे य इति नाणो ॥ (आनि ३५२, ३५५-३५९) दर्शन भावना - तीर्थंकर भगवान का प्रवचन, प्रावचनिक - युगप्रधान आचार्य आदि, अतिशायी और ऋद्धिधारी मुनि - इनके अभिमुख जाना, जाकर दर्शन, कीर्तन, संपूजन तथा स्तवन करना निरंतर भाव्यमान दर्शन भावना से दर्शनशुद्धि होती है। ४३४ प्रावचनिक के ये गुणप्रत्ययिक विषय हैं - गणितज्ञता, निमित्तज्ञता, युक्तिमत्ता, अविचल सम्यग्दर्शन, ज्ञान की अवितथता - इनकी प्रशंसा करना, आचार्य आदि के अन्यान्य गुणों का माहात्म्य प्रकट करना, ऋषियों का नामोत्कीर्त्तन करना, उनकी पूजा करने वाले देवता तथा राजाओं के विषय में बतानायह प्रशस्त दर्शन भावना है। ज्ञान भावना - तत्त्व दो हैं—जीव और अजीव, दोनों को जानना चाहिए। यह परिज्ञान जिनशासन में ही उपलब्ध है। जिनप्रवचन में कार्यलक्ष्य, करण - साधन ( सम्यग् ज्ञान आदि), कारक - मुनि और Jain Education International आगम विषय कोश - २ सिद्धि - मोक्ष- इनका पूर्ण विवेचन है। यहां कर्मबंध तथा उससे मुक्ति का उपाय भी निर्दिष्ट है। बंध, बंधहेतु, बंधन तथा बंधन-फल- इनका समुचित विवेचन जिनप्रवचन में है। जैन शासन में संसार के प्रपंच का भी तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है। 'मुझे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होगा'यह ज्ञानभावना करनी चाहिए। ज्ञान से एकाग्रचित्तता आदि गुण भी प्राप्त होते हैं । वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय के प्रकारों में उपयुक्त रहना भी ज्ञानभावना । ज्ञानभावना की वृद्धि के लिए सदा गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। ० चारित्र भावना - तप भावना साधु अहिंसाधम्मो, सच्चमदत्तविरई य बंभं च । साहु परिग्गहविरई, साहु तवो बारसंगे वेरग्गमप्पमाओ, एगग्गे भावणा य य ॥ परिसंगं । #1 इति चरणगयाओ किह मे होज्ज अवंझो, दिवसो ? किं वा पभू तवं काउं । को इह दव्वे जोगो, खेत्ते काले समय-भावे ॥ उच्छाहपालणाए, इई तवे संजमे य संघयणे । ....... (आनि ३६०-३६३) अहिंसा धर्म अच्छा है। सत्य, अदत्तविरति, ब्रह्मचर्य, परिग्रहविरति तथा बारहविध तप- ये सब शोभन हैं। वैराग्य भावना, अप्रमाद भावना, एकत्व भावना - ये ऋषित्व के परम अंग हैं। ये सारी भावनाएं चारित्र के आश्रित हैं । ******* मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो ? मैं कौन-सी तपस्या करने में समर्थ हूं? मैं किस द्रव्य के योग से कौन-सा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस आत्मभाव में तप कर सकता हूं ? (मैं अग्लानभाव से कौन सा तप करने में समर्थ हूं ? ) गृहीत तप के परिपालन में उत्साह रखना चाहिए। इसी प्रकार संयम और संहनन (जो तप का निर्वहन कर सके) की भावना करनी चाहिए। यह तप भावना है। • वैराग्य भावना : अनित्य भावना आदि वेरग्गेऽणिच्चादी || (आनि ३६३) अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएं वैराग्य भावना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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