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________________ आगम विषय कोश-२ ४३१ ब्रह्मचर्य १८. ब्रह्मचर्य का विघ्न : दृष्टिराग से हुप्परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय-मेहुणे चरे। जह वा सहीणरयणे, भवणे कासइ पमाय-दप्पेणं। भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे॥ डझंति समादित्ते, अणिच्छमाणस्स वि वसूणि॥ __(आचूला १६/७, ९) इय संदंसण-संभासणेहिं संदीविओ मयणवण्ही। मुनि नाना प्रकार की आसक्तियों और मतवादों से बंधे हुए बंभादीगुणरयणे, डहइ अणिच्छस्स वि पमाया॥ लोगों के बीच में अप्रतिबद्ध रहता हआ परिव्रजन करे। स्त्रियों में सुक्खिधण-वाउबलाऽभिदीवितो दिप्यतेऽहियं वही। आसक्त न हो, पूजा-सत्कार की चाह छोड़ दे। ऐहिक और दिटुिंधण-रागानिलसमीरितो ईय भावग्गी॥ पारलौकिक विषयों से अनिश्रित रहने वाला पंडित भिक्षु कामगुणों (बृभा २१५१-२१५३) में आसक्त न हो। पद्मराग आदि बहुरत्नों से कलित भवन किसी के प्रमाद परिज्ञासम्पन्न, समता में वर्तमान और अभिलाषामुक्त भिक्षु या दर्प के कारण प्रज्वलित हो जाने पर, श्रेष्ठी के नहीं चाहने पर मैथुन से उपरत हो विहरण करे। जैसे सांप अपने शरीर की जीर्ण भी वे रत्न जल जाते हैं। उसी प्रकार साधु-साध्वी के पारस्परिक केंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही माहन (अहिंसक भिक्षु) दुःखशय्या अवलोकन और संभाषण से कामाग्नि प्रज्वलित होती है। उस को छोड़ दे। (भोगाशंसा एक दुःखशय्या है। द्र स्था ४/४५०) प्रदीप्त कामाग्नि से साधु-साध्वी नहीं चाहते हुए भी अपने ब्रह्मचर्य, २०. विषय-विराग ही ब्रह्मचर्य । तप और संयम रूप गुणरत्नों को जला देते हैं। ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागता। ___ शुष्क ईंधन अथवा वायुबल से अभिप्रेरित अग्नि अत्यधिक रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ प्रज्वलित होती है। उसी प्रकार दृष्टि रूप ईंधन और राग रूप हवा णो सक्का रूवमदटुं, चक्खुविसयमागयं । से प्रेरित होकर भावाग्नि अत्यधिक उद्दीप्त हो जाती है। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ ० शब्दराग-रूपराग-वर्जन णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं। से भिक्खू णो इहलोइएहिं सद्देहिं, णो परलोइएहिं रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ सद्देहि, णो सुएहिं सद्देहि, णो असुएहिं सद्देहि, णो दिढेहिं सद्देहिं, णो सक्का रसमणासाउं, जीहाविसयमागयं। णो अदिटेहिं सद्देहि, णो इटेहिं सद्देहि, णो कंतेहिं सद्देहिं रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। सज्जेज्जा।"णो इहलोइएहिं रूवेहि, णो परलोइएहिं रूवेहि, णो सक्का ण संवेदेउं, फासविसयमागयं। णो सुएहिं रूवेहि, णो असुएहिं रूवेहिं, णो दिटेहिं रूवेहिं, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। णो अदितुहिं रूवेहिं, णो इटेहिं रूवेहि, णो कंतेहिं रूवेहिं (आचूला १५/७२-७६) सज्जेज्जा ...॥ (आचूला ११/१९ ; १२/१६) श्रोत्रेन्द्रिय में आने वाले शब्द न सुने, यह शक्य नहीं है। भिक्षु इहलौकिक (मनुष्यकृत)और पारलौकिक (तिर्यंच किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष आदि कृत) शब्दों में, श्रुत-अश्रुत और दृष्ट-अदृष्ट शब्दों में, इष्ट उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे।। और कांत शब्दों में आसक्त न हो। चक्षुइन्द्रिय के सामने आने वाले रूप न देखे, यह शक्य भिक्षु ऐहिक-पारलौकिक, श्रुत-अश्रुत , दृष्ट-अदृष्ट और नहीं है। किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी इष्ट-कांत रूपों में आसक्त न हो। पुरुष उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। १९. अब्रह्मचर्य दुःखशय्या घ्राणेन्द्रिय में आने वाली गंध का आघ्राण न करे, यह सितेहिंभिक्ख असितेपरिवए, असज्जमित्थीसुचएज्ज अणं। शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः अणिस्सिओलोगमिणंतहा परं, णमिज्जति कामगुणेहिं पंडिए॥ संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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