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________________ आगम विषय कोश-२ ४२३ ब्रह्मचर्य कहा ३. भाव मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) के प्रकार इस संदर्भ में देव शब्द से वैमानिक और ज्योतिष्क देवों अट्ठारसविहऽबंभं, भावउ ओरालियं च दिव्वं च। का, असुर शब्द से भवनपति देवों का तथा राक्षस शब्द से व्यंतरदेवों मण-वयस-कायगच्छण, भावम्मि य रूवसंजत्तं॥ का परिग्रहण किया गया है। अहव अबंभं जत्तो, भावो रूवाउ सहगयाओ वा। अथवा देव और छवी (मनुष्य) संबंधी संवास के चार भूसण-जीवजुयं वा, सहगय तव्वज्जियं रूवं॥ विकल्प हैं- १. देव देवी के साथ संवास करता है। (बृभा २४६५, २४६६) २. देव छविमती के साथ संवास करता है। ३. छविमान् देवी के साथ संवास करता है। अब्रह्मचर्य के मूल भेद दो हैं-औदारिक और दिव्य। मन, ४. छविमान् छविमती के साथ संवास करता है। वचन-काय और कृत-कारित-अनुमति के भेद से प्रत्येक के नौ-नौ यहां देव शब्द चतुर्विध देवनिकाय का और छविमान् शब्द भेद होने से अब्रह्मचर्य के कुल अठारह भेद होते हैं। यह अठारह मनुष्य का वाचक है। प्रकार का अब्रह्मचर्य भाव सागारिक है। अथवा अब्रह्मभाव की उत्पत्ति का हेतु होने के कारण रूप ५. दिव्य रूप के प्रकार, दिव्यप्रतिमा और रूपसहगत भी भाव सागारिक है। वाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं च मज्झिमगं। रूप-आभूषणरहित जीववियुक्त स्त्रीशरीर। वेमाणिय उक्कोसं, पगयं पुण ताण पडिमासु ॥ रूपसहगत-अलंकृत अथवा अनलंकृत जीवयुक्त स्त्रीशरीर। कटे पुत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि। ४. संवास के प्रकार सेलम्मि य उक्कोसं, जं वा रूवाउ निष्फन्नं॥ चउधा खलु संवासो, देवाऽसुर रक्खसे मणुस्से य। (बृभा २४६८, २४६९) अण्णोण्णकामणेण य, संजोगा सोलस हवंति॥ दिव्य रूप के तीन प्रकार हैंअधवण देव-छवीणं, संवासे एत्थ होति चउभंगो।..... जघन्य - व्यन्तरदेवों का रूप। अत्र देवशब्देन वैमानिको ज्योतिष्को वा, असरशब्देन मध्यम – भवनपति तथा ज्योतिष्क देवों का रूप। भवनवासी, राक्षसशब्देन तु सामान्यतो व्यन्तरः परिगृह्यते।...... उत्कृष्ट – वैमानिक देवों का रूप। अत्र देवशब्देन सामान्यतो भवनपत्यादिनिकायचतुष्टयाभ्यन्तर यहां दिव्य प्रतिमाओं का प्रसंग है। वर्ती गृह्यते, छविमांश्च मनुष्य उच्यते। दिव्य प्रतिमा के तीन प्रकार हैं(बृभा ४१९२, ४१९३ वृ) जघन्य - काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदि में कृत दिव्यप्रतिमा। मध्यम - हस्तिदन्त में कृत दिव्यप्रतिमा। संवास-मैथुन चार प्रकार का होता है उत्कृष्ट - शैल, मणि आदि में की गई दिव्य प्रतिमा। १. देवताओं का २. असुरों का ३. राक्षसों का ४. मनुष्यों का। परस्पर कामना से संवास के सोलह संयोग होते हैं ० परिगृहीत प्रतिमा और उसके प्रकार १. देव का देवी के साथ ९. राक्षस का देवी के साथ कढे पुत्थे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य। २. देव का असुरी के साथ १०. राक्षस का असुरी के साथ दिढिप्पत्ते रूवे, वि खित्तचित्तस्स भंसणया॥ ३. देव का मानुषी के साथ ११. राक्षस का मानुषी के साथ सुहविन्नवणा सुहमोयगा य सुहविन्नवणा य होति दुहमोया। ४. देव का राक्षसी के साथ १२. राक्षस का राक्षसी के साथ दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ ५. असुर का देवी के साथ १३. मनुष्य का देवी के साथ (बृभा २५०४, २५०५) ६. असुर का असुरी के साथ १४. मनुष्य का असुरी के साथ देवियों की प्रतिमाएं पांच प्रकार की होती थीं७. असुर का मानुषी के साथ १५. मनुष्य का राक्षसी के साथ १. काष्ठमयी-काष्ठ से निर्मित। ८. असुर का राक्षसी के साथ १६. मनुष्य का मानुषी के साथ २. पुस्तकमयी-मिट्टी, धातु आदि से निर्मित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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