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________________ आगम विषय कोश - २ ४२१ सपदपरूवण अणुसज्जणा य दस चोद्दसऽट्ठ दुप्पसभे। दस ता अणुसज्जंती, जा चोहसपुव्वि पढमसंघयणं । तेण परेणऽद्वविधं जा तित्थं ताव बोधव्वं ॥ (व्यभा ४१६३ - ४१६६, ४१७३, ४१७४, ४१८१ ) शिष्य ने पूछा- वर्तमान में आगमव्यवहारी का विच्छेद हो चुका है, अतः यथार्थ शुद्धिदायक के अभाव में चारित्रशुद्धि का भी अभाव हो गया है। मासिक, चातुर्मासिक आदि प्रायश्चित्त के दाता और कर्त्ता भी दृष्टिगत नहीं हो रहे हैं। ज्ञानदर्शनात्मक तीर्थ का अनुवर्त्तन हो रहा है । चारित्र के निर्यापक ही विच्छिन्न हो गए हैं। केवलीविच्छेद के थोड़े समय पश्चात् चतुर्दशपूर्वधरों का भी विच्छेद हो गया। कुछ आचार्यों का यह अभिमत है कि शोधिदाता के अभाव में प्रायश्चित्त भी व्यवच्छिन्न हो गये हैं। दूसरी बात, जिन और चौदहपूर्वी उतना प्रायश्चित्त देते हैं, जितने प्रायश्चित्त से पाप की शुद्धि होती है। किन्तु कल्प-व्यवहार- निशीथधारक आगमव्यवहार के अभाव में मनचाहा प्रायश्चित्त दे सकते हैं। आचार्य ने कहा- सब प्रायश्चित्तों का विधान प्रत्याख्यानप्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु में है। वहीं से निशीथ, कल्प और व्यवहार का निर्यूहण किया गया है। वर्तमान में चारित्र के प्रवर्तक, प्रायश्चित्त के प्रज्ञापक, निर्यापक और प्रायश्चित्तवाहक विद्यमान हैं। प्रायश्चित्त की प्ररूपणा व व्यवहार उनका निजी स्थान / दायित्व है । ० चतुर्दशपूर्वी के काल तक दसों प्रायश्चित्तों का अस्तित्व रहता है। चौदहपूर्वी और प्रथम संहनन का एक साथ विच्छेद होता है। उनके व्यवच्छिन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचित - इन दोनों अंतिम प्रायश्चित्तों का भी विच्छेद हो गया। तत्पश्चात् प्रथम आठ प्रायश्चित्त तब तक रहेंगे, जब तक तीर्थ चलेगा। तीर्थव्यवच्छेद दुः प्रसभ आचार्य के कालगत होने पर तीर्थ और चारित्र का व्यवच्छेद हो जाएगा। वर्धकिरत्न और धनिक दृष्टांत भुंजति चक्की भोए, पासाए सिप्पिरयणनिम्मविते । किंच न कारेति तथा, पासाए पागयजणो वि ॥ जदि अत्थि न दीसंती, केइ करेंतत्थ धणियदिट्टंतो । संतमसंते विहिणा, मोयंता दो वि मुच्यंति ॥ Jain Education International आज ज्ञानी प्रायश्चित्तदाता और प्रायश्चित्तवाहक यदि विद्यमान हैं, तो वे दिखाई क्यों नहीं देते ? गुरु शिष्य की इस जिज्ञासा को दो दृष्टांतों से समाहित करते हैं ० वर्धकिरत्न - चक्रवर्ती शिल्पीरत्न - वर्धकिरत्न द्वारा निष्पादित भव्य प्रासाद में रहता हुआ भोग भोगता है । उस प्रासाद को देखकर अन्यान्य राजा या सामान्य जन भी अपने-अपने वर्धकियों से प्रासाद बनवाते हैं। इसी प्रकार परोक्षज्ञानी भी आगमव्यवहारी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। ० धनिक दृष्टांत - साहूकार दो प्रकार के होते हैं - सापेक्ष और निरपेक्ष । ऋण लेने वाले भी दो प्रकार के होते हैं बहुश्रुत संतविभवो तु जाधे, मग्गति ताहे य देति तं सव्वं । जो पुण असंतविभवो, तत्थ विसेसो इमो होति ॥ निरवेक्खो तिणि चयति, अप्पाण धणागमं च धारणगं । सावेक्खो पुण रक्खति, अप्पाण धणं च धारणगं ॥ (व्यभा ४१७७, ४१९४-४१९६) ० सद्विभव - मांगने पर तत्काल सर्वस्व लौटाने वाले । असद्विभव- - पास में पर्याप्त धन नहीं होने के कारण ऋण नहीं चुकाने वाले । ऐसे व्यक्तियों के प्रति जो निरपेक्ष होकर कठोर व्यवहार करता है, उसके तीन हानियां होती हैं- स्वयं की हानि - परेशानी, प्राप्तव्य धन की अप्राप्ति और ऋणी की ऋणवृद्धि । जो धनिक सापेक्ष होकर उपाय द्वारा (ऋणी को प्रतिमास ब्याज देने की प्रेरणा देकर अपने गृहकार्य में व्यापृत कर ) सारा ऋण वसूल कर लेता है, वह अपनी, धन की और ऋणी की रक्षा करता है। इस प्रकार सापेक्ष धनिक उपायपूर्वक दोनों प्रकार के कर्जदारों को मुक्त कर देता है । सापेक्ष आचार्य अपने उपायकौशल से अपराधी मुनि को प्रायश्चित्त- वहन करवाकर चारित्र और तीर्थ की सुरक्षा करते हैं। ० बहुश्रुत - विविध श्रुतग्रंथों का ज्ञाता । द्र गीतार्थ बहुश्रुत बारह अंगों का ज्ञाता होता है। शंख, सूर्य, शक्रेन्द्र आदि सोलह उपमाओं से उसके वैशिष्ट्य का निरूपण किया गया है। द्र श्रीआको १ बहुश्रुत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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