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________________ अंतकृत - जन्म-मरण की परम्परा का अंत करने वाला । १. अंतकृत कौन ? २. अंतकृत होने की साधना * अनिदानता से निर्वाण आगम विषय कोश - २ द्र निदान * निदान : मोक्षमार्ग का परिमंथ द्र परिमंथ * चारित्र बिना निर्वाण नहीं द्र चारित्र * पुण्यबंध से मुक्ति कैसे ? द्र कर्म * प्रायोपगमन से अंतक्रिया या देवोपपत्ति द्र अनशन ३. अंतकृतभूमि ४. श्रमण महावीर के अंतकृतभूमि ५. अर्हत् पार्श्व-अरिष्टनेमि ऋषभ के अंतकृतभूमि ६. श्रमण महावीर आदि के अंतकृत अंतेवासी १. अंतकृत कौन ? Jain Education International भी बंधन शेष नहीं है, वह साधक निरालम्ब - इहलोकपरलोक की आशंसा से मुक्त और अप्रतिष्ठित - अप्रतिबद्ध तथा अशरीरी होकर जन्ममरण के दुःखमय संसार से विमुक्त हो जाता है। * मुक्त का स्वरूप, सिद्धि का क्रम द्र श्रीआको १ मोक्ष २. अंतकृत होने की साधना अणिच्चमावासमुर्वेति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं । विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ॥ सितेहिं भिक्खू असिते परिव्वए, असज्जमित्थीसु चएज्ज पूअणं । अणिस्सिओ लोगमिण तहा परं, ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिए ॥ तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो, धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥ से हु परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय- मेहुणे चरे । भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ॥ (आचूला १६/१, ७-९) जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुद्दे व भुयाहि दुत्तरं । अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्च ॥ जहा हि बद्धं इह माणवेहि य, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिओ । अहा तहा बंधविमोक्ख से विऊ, से हुमुणी अंतकडेत्ति वुच्चइ ॥ इमिलो पर य दोसुवि, ण विज्जइ बंधण जस्स किंचिवि । से लिंबणे अप्पट्ठिए, कलंकली भावपहं विमुच्चइ ॥ निरालम्बनः - ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः, अप्रतिष्ठितःन क्वचित् प्रतिबद्धो ऽशरीरी वा । (आचूला १६/१०-१२ वृ) जिसे अपार सलिल का प्रवाह और भुजाओं से दुस्तर महासागर कहा है, वह है संसार । जो इसे जान लेता है - ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है, वह पंडित मुनि अंतकृत (भव या कर्म का अंत करने वाला) कहलाता है। जिन हेतुओं से मनुष्य (प्राणी) बंधन को प्राप्त होते हैं और जिन हेतुओं से उनका मोक्ष कहा गया है, जो मुनि उन बंधन और प्रमोक्ष के हेतुओं को यथार्थ रूप में जानता है, वह मुनि अंतकृत कहलाता है। भिक्षु संयोग से मुक्त, परिज्ञाचारी- विवेक से आचरण करने वाला, धृतिमान व कष्टसहिष्णु है, उस भिक्षु का पूर्व इस लोक और परलोक दोनों में ही जिसका किंचित् संचित कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार प्राणी अनित्य आवास को प्राप्त होते हैं- मनुष्य आदि गतियों में उत्पन्न होकर अनित्य शरीर में आवास करते हैंइस अनुत्तर अर्हत्-वचन का श्रवण कर पर्यालोचन - अनित्यता का साक्षात् अवलोकन करने वाला विज्ञ पुरुष वित्त, पुत्र, कलत्र संबंधी घर के बंधनों को विसर्जित कर भयमुक्त होकर आरंभ और परिग्रह का परित्याग करे । मुनि नाना प्रकार की आसक्तियों और मतवादों से बंधे हुए लोगों के बीच में अप्रतिबद्ध रहता हुआ परिव्रजन करे । वह स्त्रियों में आसक्त न हो, पूजा-सत्कार की चाह छोड़ दे। ऐहिक और पारलौकिक विषयों से अनिश्रित रहने वाला पंडित भिक्षु कामगुणों (इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों) में आसक्त न हो। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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