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________________ आगम विषय कोश-२ ३९९ प्रायश्चित्त तप और छेद-दोनों के स्थान तुल्य ही होते हैं। दोनों में . छेद व मूल में अंतर : प्रायश्चित्त के आठ प्रकार ही आदि स्थान पांच अहोरात्र है, फिर पांच-पांच की वृद्धि से छिज्जंते वि न पावेज्ज कोइ मूलं अओ भवे अट्ठ। अंतिम स्थान छह मास है। (पांच अहोरात्र से कम और छह मास चिरघाई वा छेओ, मूलं पुण सज्जघाई उ॥ से अधिक अवधि वाले तप और छेद प्रायश्चित्त नहीं होते।) (बृभा ७११) १०. देशछेद-सर्वछेद : प्रायश्चित्त के सात प्रकार जो चिरप्रव्रजित है, उसके दीक्षापर्याय का यदि छह मास दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सव्वछेदो अ। से अधिक छेद किया जाता है तो वह मूल के अंतर्गत है, छेद से मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त॥ विलक्षण है, अतः प्रायश्चित्त के आठ प्रकार हो जाते हैं। (बृभा ७१०) छेद चिरघाती है, क्योंकि इसमें चिरकाल तक दीक्षा छेद के दो प्रकार हैं--१. देशछेद और २. सर्वछेद। पर्याय का छेद होता है। मूल सद्योघाती है, क्योंकि यह शीघ्र ही पांच अहोरात्र से लेकर छह मास पर्यंत का प्रायश्चित्त देशछेद। दीक्षा पर्याय को समाप्त कर देता है। * अनवस्थाप्य और पारांचित द्र पारांचित है। मूल, अनवस्थाप्य और पारांचित-इन तीनों का समावेश सर्वछेद के अन्तर्गत किया गया है। क्योंकि ये श्रमणपर्याय का युगपद् छेद १२. साध्वी को अनवस्थाप्य-पारांचित नहीं १ करते हैं। इस प्रकार अंतिम तीन प्रायश्चित्तों का सर्वछेद में समावेश एसेव गमो नियमा, समणीणं दुगविवजितो होति। होने से प्रायश्चित्त के सात प्रकार होते हैं। (व्यभा ६२३) ११. मूल प्रायश्चित्त (नई दीक्षा) के स्थान जो प्रायश्चित्तविधि श्रमण के लिए अभिहित है, वही तवऽतीतमसद्दहिए, तवबलिए चेव होति परियागे। नियमतः श्रमणो के लिए है। इतना विशेष है कि अनवस्थाप्य दुब्बल अपरीणामे, अत्थिर अबहुस्सुते मुलं॥ और पारांचित-ये दो प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी श्रमणी को नहीं __ (व्यभा ५०२) दिए जाते। उसको परिहार तप भी नहीं दिया जाता। .१३. त्रिविध प्रायश्चित्त : दान आदि आठ प्रकार से मुनि मूल प्रायश्चित्त के भागी होते हैं० तप-अतीत-छह मास पर्यंत तप करने पर भी शुद्धि न हो। गुरु-लघुविशेषविस्तरपरिज्ञानार्थमाचार्यस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं ० अश्रद्धा-तप से पाप की शुद्धि नहीं होती-ऐसा सोचने वाला। दर्शयति, तद्यथा-दानप्रायश्चित्तं तपःप्रायश्चित्तं काल - ० तपोबली-जो महान् तप से क्लांत नहीं होता और 'मैं तप । प्रायश्चित्तं च। तत्र दानप्रायश्चित्तं गुरुकं लघुकं च। एवं करूंगा' ऐसा गर्व कर प्रतिसेवना करता है अथवा छहमासिक तप तप:- कालप्रायश्चित्ते अपि गुरु-लघुके"। देने पर जो कहता है-मैं अन्य तप करने में भी समर्थ हूं। (बृभा २९९ की वृ) ० पर्याय-छेद प्रायश्चित्त से शोधि न होने पर अथवा मैं रत्नाधिक गुरु-लघु प्रायश्चित्त को विशेष विस्तार से जानने के लिए हूं, छेद देने पर भी मेरा पर्याय दीर्घ है, ऐसा कहने वाला। आचार्यों ने तीन प्रकार के प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन किया है० दुर्बल-जिसे बहुत तप प्रायश्चित्त प्राप्त है किन्तु वह उसे वहन १. दान प्रायश्चित्त २. तप प्रायश्चित्त ३. काल प्रायश्चित्त । करने में असमर्थ है। इनमें से प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-गुरु और लघु। ० अपरिणामी-इस छहमासिक प्रायश्चित्त से मेरी शुद्धि नहीं ० दान प्रायश्चित्त : तीन आदेश होगी-ऐसा कहने वाला। अहवा वातो तिविहो, एगिंदियमादी जाव पंचिंदी। ० अस्थिर-अधृति के कारण पुनः-पुनः प्रतिसेवना करने वाला। पंचण्ह चउत्थाई, अहवा एक्कादि कल्लाणं॥ ० अबहुश्रुत-अगीतार्थ, जिसे अनवस्थाप्य या पारांचित भी प्राप्त छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साधारे। है, किन्तु अबहुश्रुतता के कारण उसे मूल दिया जाता है। संघट्टण परितावण, लहुगुरु अतिवायणे मूलं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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