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________________ ग्रंथ परिचय ३७ ० वृत्ति-दशा पर ब्रह्मविरचित जनहिता नामक एक संक्षिप्त टीका है। इसके प्रारंभ में पांच गाथाओं में भगवान महावीर और गौतम गणधर की स्तुति कर चूर्णि का उल्लेख करते हुए वृत्ति निर्माण का प्रयोजन बताया गया है। इसमें अध्ययनों की संबंध-योजना भी की गई है। यथा-असमाधिस्थानों का आचरण करने वाला शबल होता है। अथवा शबल स्थानों में प्रवर्तमान के असमाधि होती है। अतः असमाधि से उपरत रहने के लिए शबलत्व के स्थानों का परिहार करना चाहिये। ३४ पत्रों में निबद्ध (हस्तलिखित) इस वृत्ति का पदपरिमाण १०३० है। कल्पसत्र (पर्यषणाकल्प) पर कल्पलता नाम की (हस्तलिखित) टीका है. जो समयसंदर उपाध्याय द्वारा विरचित है। इसका ग्रंथपरिमाण ८००० है। प्रारंभ में दशविध कल्पस्थिति की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् पर्युषणा की सामाचारी की विस्तृत जानकारी दी गई है। समिति, गुप्ति आदि के संदर्भ में अनेक कथानक नामोल्लेखपूर्वक निर्दिष्ट हैं। ४. कल्प (बृहत्कल्प) यह छेदसूत्र है, जो चरणकरणानुयोग के अंतर्गत है। कालिक सूत्रों की सूची में यह कल्प नाम से उल्लिखित है। मध्यकाल में पर्युषणाकल्प कल्पसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। संभवत: इसीलिए प्रस्तुत 'कल्पसूत्र' के लिए 'बृहत्कल्प' नाम प्रसिद्धि में आ गया। एक दूसरी संभावना पर भी ध्यान आकर्षित होता है कि कल्पसूत्र पर दो भाष्य लिखे गए-बृहत् और लघु। बृहत्कल्पभाष्य-इसमें कल्प के साथ बृहद्भाष्य का उल्लेख है किन्तु उत्तरकाल में यह बृहत् शब्द कल्प के साथ जुड़ गया और कल्प का नाम बृहत्कल्प हो गया। कल्प का नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से नि!हण किया गया है। निर्वृहणकार हैं चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु । कल्प के छह उद्देशक हैं, दो सौ पांच सूत्र हैं, जिनमें साधु के आचार की प्रज्ञप्ति है। इनमें महाव्रत, समिति और गुप्ति संबंधी विविध विधि-निषेधों का निरूपण है। छह उद्देशकों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय ये हैं० प्रथम उद्देशक-तालप्रलंब, मासकल्प, चित्रकर्म, सागारिक-उपाश्रय, व्युपशमन, वैराज्य, आर्यक्षेत्र-विहार आदि। ० द्वितीय उद्देशक-शय्या, शय्यातर, वस्त्र आदि। ० तृतीय उद्देशक-वस्त्रग्रहण, अंतगृह, अवग्रह-अनुज्ञा, सेनापद आदि। © चतुर्थ उद्देशक-अनुद्घातिक, पारांचित और अनवस्थाप्य, उपसम्पदा, शवपरिष्ठापन विधि, महानदी आदि। ० पंचम उद्देशक-मैथुनप्रतिसेवना और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त, अनुपशांत कलह और छेद प्रायश्चित्त, ब्रह्मचर्यसुरक्षा हेतु निग्रंथी के लिए आतापना तथा अनेक आसनों का निषेध, यथालघुस्वक व्यवहार आदि। ० षष्ठ उद्देशक-षड्विध अवचन, विशेष स्थिति में साधु-साध्वी की पारस्परिक सेवा विधि (कंटकोद्धार, जलप्रवाह आदि में आलम्बन), साध्वाचार के परिमन्थु (विघ्न), कल्पस्थिति (जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि)। प्रस्तुत सूत्र में उपशम को श्रामण्य का सार बताया गया है, जो प्रत्येक साधक के लिए प्रकाशस्तंभ है। सूत्रकार ने विहारक्षेत्र के संदर्भ में निर्देश दिया है कि मुनि को आर्यक्षेत्रों में ही विहरण करना चाहिये, किन्तु इस सीमा से परे यदि ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि होती हो तो मुनि वहां भी जा सकता है। साधना के प्रति यह उदार दृष्टिकोण सूत्रकार की अनेकांत दृष्टि का श्रेष्ठ निदर्शन है। इसका ग्रंथपरिमाण है-अनुष्टुप् श्लोक ४७१, जिनमें कुल अक्षर १५०९५ हैं। व्याख्या ग्रंथ ० नियुक्ति-भाष्य-नियुक्तिकार ने जिन दस नियुक्तियों के निर्माण का संकल्प किया, उनमें से एक नाम १. नन्दी ७८ २. प्रस्तुत कोश (छेदसूत्र) ३. नवसुत्ताणि, कप्पो ४. वही, १/३४, ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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