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________________ परिहारतप ३३२ आगम विषय कोश-२ आलापन, प्रतिपृच्छा, परिवर्तना, उत्थान, वंदन, मात्रकानयन, । सकता यावत् छह मासिक परिहारी छह मास तीस दिन (सात प्रतिलेखन, संघाटक, भक्तदान और सहभोजन-इन दस स्थानों से मास) एक साथ आहार नहीं कर सकता। गच्छ उसका और वह गच्छ का परिहार करता है। मासस्स गोण्णणामं, परिहरणा पूतिनिव्वलणमासो। जे भिक्खू अपरिहारिए परिहारियं बूया-'एहि अज्जो! तत्तो पमोयमासो, भुंजणवजण न सेसेहिं॥ तुमं च अहं च एगओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जति सुहं च वीसुं, तवसोसियस्स य जं बलकरं तु। पडिग्गाहेत्ता तओ पच्छा पत्तेयं-पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो पुणरवि य होति जोग्गो, अचिरा दुविहस्स वि तवस्स॥ वा'-जे तं एवं वदति..."आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं (व्यभा १३४१, १३४२) उग्घातियं॥ (नि ४/११८) कुथित मद्य आदि से दुर्गधित पात्र में जब तक गंध आती जो अपारिहारिक भिक्षु पारिहारिक को कहता है-आओ है, तब तक उसमें क्षीर आदि नहीं डाला जाता, वैसे ही दुश्चरित आर्य! तुम और मैं एक साथ (भिक्षार्थ गमन कर) अशन, पान, की दर्गंध से भावित उसके साथ एक मास तक आहार नहीं किया खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् खाएंगे, जाता। इस मास के गुणनिष्पन्न नाम दो हैं-प्रतिनिर्वलन (दुर्गंधपीएंगे-इस प्रकार कहने वाले को लघुमास परिहारस्थान प्राप्त विनाशक)मास और प्रमोदमास (संभाषण आदि द्वारा प्रमुदित मास)। होता है। पृथक् आहार का एक कारण यह है कि उसका शरीर तप से ७. संभोज-वर्जन की अवधि और उसका हेतु शोषित हो जाता है। जब तक वह पृथक् भोजन करता है तो सब बहवे परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ साधु सलक्ष्य सुखपूर्वक उसे बलवर्धक आहार देते हैं। इससे वह एगमासं वा दुमासं वा तिमासं वा चउमासं वा पंचमासं वा शीघ्र ही पुन: बाह्य तप और आभ्यंतर तप के योग्य हो जाता है। छम्मासं वा वत्थए। ते अण्णमण्णं संभंजंति, अण्णमण्णं नो ८. कल्पस्थित और अनुपारिहारिक की सामाचारी संभुंजंति मासं, तओ पच्छा सव्वे वि एगओ संभुंजंति॥ कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण पडिपुच्छणं पि से देति। पणगं पणगं मासे, वजेजति मास छण्हमासाणं।" सो चिय गुरुमुवचिट्ठति, उदंतमवि पुच्छितो कहए। (व्य २/२७ भा १३३९) उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज भंडगं पेहे। अनेक परिहारी और अनेक अपरिहारी भिक्षु एक, दो, तीन, कुवियपियबंधवस्स व, करेति इतरो वि तुसिणीओ॥ चार, पांच या छह मास पर्यंत एक साथ रहना चाहें तो परिहारी (व्यभा ५५३, ५५४) भिक्षु परिहारी और अपरिहारी के साथ आहार नहीं कर सकते। ___ जो कल्पस्थित (मुखिया) है, वह पारिहारिक की वंदना अपरिहारी भिक्षु अपरिहारी के साथ बैठकर आहार कर सकते हैं, __ स्वीकार करता है, आलोचना सुनता है, प्रत्याख्यान करवाता है, परिहारी के साथ नहीं कर सकते। सूत्रार्थ संबंधी प्रश्न पूछने पर उत्तर देता है। पारिहारिक भी जब गुरु छह मासिक परिहार तप की पूर्णता के एक मास पश्चात् बाहर से स्थान पर आते हैं तो उनका अभ्युत्थान आदि के द्वारा सब (परिहारी और अपरिहारी) एक साथ आहार कर सकते हैं। विनय करता है। गरु सुखपृच्छा करते हैं। पारिहारिक अपनी शरीर जो एकमासिक परिहारतपसमापन्न है, वह एक मास तक आदि की स्थिति का निवेदन करता है। परस्पर आलाप आदि नहीं करता तथा एक मास और पांच दिन तक यदि वह उठने-बैठने में असमर्थ हो जाता है और कहता एक साथ भोजन नहीं करता। (इन अतिरिक्त पांच दिनों में शेष है कि मझे उठना है या बैठना है तो अनपारिहारिक उसके कहते आलाप आदि सब क्रियाएं कर सकता है।) इसी प्रकार पांच-पांच ही शीघ्र आकर उसे उठाता है, बिठाता है। दिन की क्रमवृद्धि से संभोज वर्जनीय है अर्थात् दो मास परिहारतप भिक्षा के लिए गया हआ पारिहारिक भिक्षा लेने में असमर्थ वहन करने वाला दो मास और दस दिन एक साथ भोजन नहीं कर हो तो अनुपारिहारिक भिक्षा ग्रहण करता है। जाने में असमर्थ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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