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________________ परिहारतप ३३० आगम विषय कोश-२ पांच अहोरात्र यावत् भिन्न मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना अगीतार्थ, धृति से दुर्बल और प्रथम तीन संहननों (वज्रऋषभनाराच, करने पर परिहारतप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, किन्तु मास, दो ऋषभनाराच, नाराच) से विकल। जो धृतिसम्पन्न, संहननसम्पन्न मास आदि स्थानों में वह दिया जाता है। और गीतार्थता आदि गुणों से सम्पन्न हैं, उन्हें यदि परिहारतप प्राप्त पायच्छित्तमणावण्णो अपरिहारिओ, आवण्णो मासाति हो तो नियमत: वही देना चाहिए। जाव-छम्मासियं सो परिहारिओ। (नि ४/११८ की चू) ४. परिहारतप की योग्यता के परीक्षण बिन्दु जो एक मासिक यावत् छहमासिक प्रायश्चित्तसमापन्न है, को भंते! परियाओ, सुत्तत्थाभिग्गहो तवोकम्मं ।' सगणम्मि नत्थि पुच्छा, अन्नगणा आगतं तु जं जाणे। वह पारिहारिक है। जिसे प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं है, वह अपारिहारिक अण्णातं पुण पुच्छे, परिहारतवस्स जोग्गट्ठा॥ गीतमगीतो गीतो, अहं ति किं वत्थु कासवसि जोग्गो। २. परिहार तप के स्थान अविगीते त्ति य भणिते, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो॥ असरिसपक्खिगठविते, परिहारो ......। गिहिसामन्ने य तहा, परियाओ दुविह होति नायव्वो। ....."काऊण व तेगिच्छं, सातिज्जियआगते......॥ इगुतीसा वीसा वा, जहन्न उक्कोस देसूणा॥ अहवा गणस्स अप्पत्तियं तु ठावेति होति परिहारो। नवमस्स ततियवस्थू, जहन्न उक्कोस ऊणगा दसओ। सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दव्वादि तवो रयणमादी॥ (व्यभा १३३४, १३३५) परिहारतप प्रायश्चित्त प्राप्ति के कुछ स्थान ये हैं (व्यभा ५३६-५४०) जिसे परिहार तप प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसका पृच्छा, ० कुल और श्रुत से असदृश पक्ष वाले मुनि को आचार्य बनाना। पर्याय, सूत्रार्थ आदि बिंदुओं से परीक्षण किया जाता है। ० चिकित्सा काल में मनोज्ञ आहार का आसक्ति से सेवन करना। ० पृच्छा-अपने गण का मुनि परिचित ही होता है, इसलिए उससे ० गण के द्वारा असम्मत शिष्य को आचार्य पद पर नियुक्त करना। पृच्छा नहीं की जाती। दूसरे गण से समागत मुनि की गीतार्थता जो गण के लिए अप्रतीतिकर अयोग्य शिष्य को स्वेच्छा से आचार्य आदि यदि आकार और इंगित से जान ली जाती है, तो उसकी भी बनाता है, वह चतुर्गुरु परिहार तप का भागी होता है। पृच्छा नहीं की जाती। जो अपरिचित आगंतुक साधु है, उससे पूछा निक्कारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे साहू। जाता है-तुम गीतार्थ हो या अगीतार्थ ? वह कहे कि मैं गीतार्थ हं अदुआ चिअत्तकिच्चे, परिहारं पाउणे॥ तो पूछा जाता है-तुम आचार्य हो अथवा सामान्य साधु? तुम किस __ (बृभा ६०३३) तप को करने में समर्थ हो? धृति-संहनन से स्थिर हो या अस्थिर निष्कारण प्रतिसेवना करने वाला, कारण होने पर अयतना (दुर्बल)? तपस्या में कृतयोग (कर्कश तप से भावित) हो या से प्रतिसेवना करने वाला, स्वस्थ हो जाने पर भी म्रक्षण आदि अकृतयोग? यदि वह कृतयोग हो तो उसे परिहार तप और अकृतयोग क्रियाएं उसी रूप में करने वाला परिहारतप को प्राप्त करता है। हो तो शुद्ध तप देना चाहिए। ० पर्याय-जन्मपर्याय जघन्यत: उनतीस वर्ष तथा श्रमणपर्याय बीस ३. परिहार तप के अयोग्य-योग्य वर्ष, उत्कृष्टतः दोनों ही पर्याय देशोन पर्वकोटि हो सकते हैं। सुद्धतवो अन्जाणं, ऽगीयत्थे दुब्बले असंघयणे। ० सूत्रार्थ-जघन्यतः नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु, उत्कृष्टतः धिति-बलिते य समन्नागत सव्वेसिं पि परिहारो॥ कुछ कम दस पूर्व। (व्यभा ५४५) ० अभिग्रह-भिक्षाचर्या आदि में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परिहारतप प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी जिन्हें परिहारतप संबंधित अभिग्रह करने वाला। नहीं दिया जाता, शुद्ध तप दिया जाता है, वे ये हैं-आर्या, तपःकर्म-रत्नावलि. कनकावलि आदि तपःकर्म से भावित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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