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________________ आगम विषय कोश - २ ६. गंधर्वनगर : देवकृत गंधव्वनगरनियमा सादिव्वं गन्धर्वनगरं नाम यच्चक्रवर्त्यादिनगरस्योत्पातसूचनाय सन्ध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालकादिसंस्थितं दृश्यते । (व्यभा ३११८ वृ) चक्रवर्ती आदि के नगर में उत्पात की सूचना के लिए सन्ध्या के समय उस नगर के ऊपर प्राकार, अट्टालक आदि से संस्थित जो दूसरा नगर दिखाई देता वह गन्धर्व नगर है । यह नियमतः देवकृत होता है । ( गंधर्वनगर - आकाश में व्यंतरकृत नगराकारप्रतिबिम्ब । - भ ३ / २५३ की वृ) ७. देवों की मनुष्यलोक में आने की प्रक्रिया तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमणाभिप्पायं जाणेत्ता भवणवइ-वाणमंतरजोइसिय-विमाण - वासिणो देवा य देवीओ य सएहिंसहिं रूवेहिं, सएहिं सएहिं णेवत्थेहिं, सएहिं -सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्डीए सव्वजुतीए सव्वबलसमुदएणं सयाईसयाइं जाणविमाणाइं दुरुहंति, सयाई-सयाइं जाणविमाणाई दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाई परिसाडेंति, अहाबादराइं पोग्गलाई परिसाडेत्ता अहासुहुमाई पोग्गलाई परियाइंति, अहासुहुमाई योग्गलाई परियाइत्ता उड्ड उप्पयंति, उड्डुं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाई वीतिक्कममाणावीक्किममाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति ।" (आचूला १५/२७) ..... Jain Education International श्रमण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के निर्णय को जानकर भवनपति, वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-देवियां अपने-अपने रूप, नेपथ्य ( वेश-भूषा), चिह्न, सर्वऋद्धि, सर्वद्युति और सर्व बलसमुदय के साथ अपनेअपने यान- विमानों में आरूढ़ होते हैं, अपने-अपने यानविमानों में आरूढ़ हो यथास्थूल पुद्गलों का परिशाटन (पृथक्करण) करते हैं, यथास्थूल पुद्गलों का परिशाटन कर ३०७ देव यथासूक्ष्म पुद्गलों का परिग्रहण करते हैं, यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण कर ऊर्ध्वगमन ( उड़ान) करते है, ऊर्ध्वगमन कर उस उत्कृष्ट शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य देवगति से क्रमशः नीचे उतरते हुए तिरछे लोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों को लांघकर जहां जम्बूद्वीप नामक द्वीप है, वहां आते है। | ( जब कोई अनेक रूपों का निर्माण करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करता है, उस समय आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते है। उस अवस्था में वह नाना रूपों का निर्माण करने वाला वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। यह वैक्रिय समुद्घात की प्रक्रिया का पहला चरण है। दूसरा चरण है - दण्ड का निर्माण। उसकी लम्बाई संख्येय योजन की होती है। उसकी चौड़ाई और मोटाई शरीरप्रमाण होती है। वह आत्मा के प्रदेश और कर्मपुद्गलों के योग से निर्मित होता है। तीसरा चरण है-रत्नों के असार पुद्गलों का परिशोधन कर सारपुद्गलों को ग्रहण करना। चौथे चरण में वैक्रियकर्त्ता वांछित रूपनिर्माण के लिए फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात का प्रयोग कर उस रूप का निर्माण करता है।'''' रत्नों के पुद्गल औदारिक (स्थूल) हैं, फिर उनका वैक्रिय शरीर के निर्माण में उपयोग कैसे हो सकता है ? वैक्रिय कर्त्ता वैक्रिय रूप निर्माण के समय औदारिक पुद्गलों को ग्रहण करता है । तत्पश्चात् वे वैक्रिय के रूप में परिणत हो जाते हैं । - भ ३/४ का भाष्य वैमानिक आदि देव जब मनुष्यलोक में आते हैं, तब मनुष्यलोक के अनुरूप नए शरीर का निर्माण करते हैं । देवों के दो प्रकार का शरीर होता है- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान के देव उत्तरवैक्रिय नहीं करते. शेष देवों के दोनों प्रकार का शरीर होता है। उनके नए शरीर का निर्माण होता है, वह उस शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर कहलाता है। देव अपने भवधारणीय शरीर से प्रायः अन्यत्र नहीं जाते। वे उत्तरवैक्रिय शरीर का अपने स्थान में ही निर्माण कर लेते हैं, फिर अन्यत्र जाते हैं। - भ ३ / ११२ का भाष्य तिर्यक्लोक में जाने के लिए जिस पर्वत से उड़ान भरी जाती है, उसे उत्पातपर्वत कहा जाता है। इसकी तुलना वर्तमान की हवाई पट्टी से की जा सकती है। ये संख्या में अनेक हैं। इन उत्पात पर्वतों पर वैक्रिय शरीर का पुनर्निर्माण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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