SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान जो संज्ञी जीवों के मन्यमान (मनन में व्यापृत) मनोवर्गणा के पुद्गलस्कंधों को देखकर मन के भावों (चिंतित अर्थ) को जानता है, वह मनः पर्यवज्ञान है। जैसे सामान्य व्यक्ति स्फुट आकारों के द्वारा मन के भावों को जानता है, वैसे ही मनः पर्यवज्ञानी मनोद्रव्यगत आकारों को देखकर उनउन मानस भावों को जानता है । 'मनः पर्यवज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं - इस विषय में मतैक्य नहीं है। निर्युक्ति, तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है; जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं।" 'परचित्त का साक्षात्कार करने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान है', यह व्याख्या स्पष्ट नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनः पर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है, जबकि मनः पर्यवज्ञान मूर्त्त वस्तु को ही जान सकता है। इस विषय में सभी जैन दार्शनिक एकमत हैं। मनः पर्यवज्ञान का विषय है मनोद्रव्य, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध । ये पौद्गलिक मन का निर्माण करते हैं । मनः पर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कंधों का साक्षात्कार करता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मन:पर्यवज्ञान का विषय नहीं है । चिन्त्यमान वस्तुओं को मन के पौद्गलिक स्कंधों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है । .......चिन्त्यमान विषय वस्तु को साक्षात् नहीं जानता क्योंकि चिंतन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसीलिए मनः पर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है । इसलिए मनः पर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पण्णवणा ३० / २) का निर्देश भी है। सिद्धसेनगणी ने चिन्त्यमान विषय वस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका अभिमत है कि मनः पर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी नहीं जानी जाती। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है। Jain Education International आगम विषय कोश - २ " चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं, वे सब पौद्गलिक होते हैं । भावमन ज्ञान है। ज्ञान अमूर्त है। अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता। वह चिन्तन के क्षण में पौद्गलिक स्कन्ध की विभिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने का अर्थ भावमन को जाना नहीं होता किन्तु भावमन के कार्य में निमित्त बनने वाले मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों के पर्यायों को जानना होता है । "...... - नन्दी २३ का टि मनः पर्यवज्ञानी के लिए नव अर्हताएं निर्धारित हैं - १. ऋद्धि प्राप्त २. अप्रमत्त संयत ३. संयत ४. सम्यग्दृष्टि ५. पर्याप्तक ६. संख्येयवर्षायुष्क ७. कर्मभूमिज ८. गर्भावक्रांतिक मनुष्य ९. मनुष्य । द्र श्रीआको १ मनः पर्यवज्ञान मनः पर्यवज्ञान आहारक अवस्था में होता है। - भ ८/१८३) ५. केवलज्ञान की उत्पत्ति और स्वरूप तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स...... झाणकोट्ठोवगयस्स, सुक्कज्झाणंतरिया वट्टमाणस्स निव्वाणे, कसिणे, पडिपुण्णे, अव्वाहए, णिरावरणे, अते, अणुत्तरे केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे ॥ से भगवं अरिहं जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पज्जाए जाणइ, तं जहा – आगतिं गतिं ठितिं चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्पं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे, एवं च णं विहरड़ । २७४ ( आचूला १५ / ३८, ३९) शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान श्रमण भगवान् महावीर के घात्यकर्मक्षय से शांत-प्रशांत, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण, अनंत, अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान- केवलदर्शन समुत्पन्न हुआ। अब वे भगवान् अर्हत् जिन केवली हो गए - सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी। वे देव, मनुष्य और असुर सहित समस्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy