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________________ आगम विषय कोश-२ २६३ जीवनिकाय विवरण दिया है। श्वास के पुदगलों की एक स्वतंत्र वर्गणा असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक हजार योजन है। उसके पुद्गल ही श्वास के काम में आते हैं। है। पृथ्वीकाय यावत् वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है-वायुकायिक जीव जो का असंख्यातवां भाग तथा वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना श्वास लेते हैं, वह वायुकाय है। क्या वायुकाय भी वायुकाय का सातिरेक हजार योजन है। द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना श्वास लेता है? यदि एक वायुकाय का जीव दूसरे वायुकाय का बारह योजन, त्रीन्द्रिय की तीन गव्यूत, चतुरिन्द्रिय की चार श्वास लेगा, दूसरा तीसरे का, इस शृंखला में अंतिम वायुकाय का गव्यूत, पंचेन्द्रियतिर्यंच की हजार योजन और मनुष्य की तीन जीव किसका श्वास लेगा? इस प्रकार अनवस्था नामक तर्क दोष गव्यूत है।-प्रज्ञा २१/३८-४८ आ जाएगा।..... औदारिक शरीर रचना के अनेक प्रकार हैंवायुकाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता है जीव शरीर १. वायु के जीवों का निकाय। ० एकेन्द्रिय ० औदारिक शरीर २. उच्छ्वास और नि:श्वास। ० द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय ० अस्थि-मांस-शोणितबद्ध वायुकाय सचेतन है और श्वासवायु अचेतन है। पुद्गल । औदारिक शरीर। की आठ वर्गणाओं में श्वासोच्छ्वास वर्गणा का स्वतंत्र अस्तित्व ० पंचेन्द्रिय ० अस्थि-मांस-शोणित-स्नायुहै। उसका वायुकाय के जीवों से कोई संबंध नहीं है। वायुकाय शिराबद्ध औदारिक शरीर। के जीव श्वास में श्वासवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, -स्था २/१५५-१६०) किसी दूसरे वायुकाय जीव का ग्रहण नहीं करते, इसलिए यहां * देव आदि का शरीर और लक्षण द्र शरीर अनवस्था दोष का कोई प्रसंग नहीं है। श्वासवर्गणा के पुद्गलों ४. स्नेह (अपकाय) वर्षण का काल के सूक्ष्म होने के कारण उन्हें वायु कहा जाता है, किन्तु वास्तव पढमचरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं.......... में वे वायुकाय के जीव नहीं हैं।-भ २/२-८ भाष्य) स्नेहः-अवश्यायः आदिशब्दाद महिका-हिम३. पृथ्वी आदि का शरीरपरिमाण वर्षादिपरिग्रहः।"शिशिरकाले कालस्य स्निग्धतया ..."कलमेत्तं पुण जायइ, वणवज्जाणं असंखेहिं॥ प्रथमायां चरमायां च पौरुष्यामवश्यायादिपतनभावतः. वणस्सइकायमेत्तं वज्जित्ता सेसेगेंदियकायाणं उष्णकाले तु प्रथमायाः पौरुष्या अर्धे"चरमायास्तु पौरुष्याः असंखेज्जाणं जीवसरीराणं समुदयसमितिसमागमेणं, पश्चिमेऽर्द्ध"कालस्य रूक्षतया तत ऊर्ध्वं पश्चाच्चावश्याकलमेत्तं लब्भति। (निभा ४०३५ चू) यादिसम्भवात्। (बृभा ५२१ वृ) वनस्पतिकाय को छोड़कर शेष एकेन्द्रियकायों के स्नेह-ओस कोहरा, हिमवर्षा आदि जल के प्रकार असंख्येय जीवशरीरों के समदयसमितिसमागम से मात्र चने हैं। शिशिरकाल में काल की स्निग्धता के कारण प्रथम और जितना शरीर बनता है। अंतिम प्रहर में तथा ग्रीष्मकाल में काल की रूक्षता के (समुदय-समूह। समिति-अव्यवहित मिलना। समा- कारण प्रथम और अंतिम प्रहर के क्रमश: प्रथम और अंतिम गम-परस्पर संबद्धता । समूह बनने के बाद भी उसमें बिखराव आधे-आधे भाग में स्नेह का गिरना संभव है। हो सकता है, इसलिए उनका अव्यवहित सम्पर्क बताने के (सूक्ष्म स्नेहकाय ऊंचे, नीचे और तिरछे-तीनों लोकों लिए समिति शब्द की सार्थकता है। अव्यवहित सम्पर्क में भी में सदा संगठित रूप में गिरता है और वह शीघ्र ही विध्वंस निरपेक्षता संभव है। परस्पर संबद्ध होने के बाद उनकी विशिष्ट को प्राप्त हो जाता है। इस आधार पर यह अनुमान किया जा परिणति अर्थात् एकात्मकता बनती है।-अनु ७२ का टि सकता है कि वह तमस्काय से गिरता है और पूरे वातावरण में औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल का व्याप्त हो जाता है।-भ १/३१४-३१६ का भाष्य) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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