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________________ जिनकल्प नवाचार्यप्रभृतयः किमस्य गणादेरनुपालनं कर्तुं यथावदीशते वा? नवा ? यदि नेशते ततो मया न प्रति-पत्तव्यो जिनकल्पः, यतो जिनकल्पानुपालनादपि श्रेष्ठ तर मितरस्य तथाविधस्याभावे सूत्रोक्तनीत्या गणाद्यनुपालनम्, बहुतरनिर्जरालाभकारणत्वात् । (बृभा १२८५ वृ) जो जिनकल्प स्वीकार करना चाहते हैं, वे यदि आचार्य हैं तो परिमित काल के लिए अपने योग्य शिष्य को आचार्य पद पर स्थापित करते हैं। यदि उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि हैं तो अपने तुल्य गुणों वाले साधु को अल्पकालिक उपाध्याय आदि पद पर स्थापित करते हैं। शिष्य ने पूछा- गण आदि का निक्षेप इत्वरिक क्यों किया जाता है, यावज्जीवन के लिए क्यों नहीं किया जाता ? आचार्य ने कहा- चक्राष्टकविवरगामी बाण के द्वारा पुतली की बाईं आंख को बींधने की भांति गण की अनुपालना दुष्कर कार्य है, इसलिए हम देखते हैं कि ये नवनियुक्त आचार्य आदि गण का भार वहन करने में सक्षम हैं या नहीं ? यदि सक्षम नहीं हैं तो हमें जिनकल्प स्वीकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पदयोग्य शिष्य के अभाव में आगम-विहित विधि से गण का अनुपालन करना जिनकल्प की अनुपालना से श्रेष्ठतर गणका योगक्षेमवहन (संरक्षण-संवर्धन) करने से महान् निर्जरा होती है। ३. जिनकल्प के अधिकारी कौन ? पञ्चानाम् - आचार्योपाध्याय प्रवर्त्तक- स्थविरगावच्छेदकानां तुलना भवति इह चैत एव प्रायोऽभ्युद्यतविहारस्याधिकारिण इति कृत्वा पञ्चेति संख्यानियमः कृतः । (बृभा १२८४ वृ) आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर और गणावच्छेदक - ये पांच प्रकार के व्यक्ति जिनकल्प-प्रतिपत्ति के विषय में अपनी क्षमता को तोलते हैं, विमर्श करते हैं, क्योंकि ये ही प्रायः अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प) के लिए अधिकृत होते हैं, अतः पांच की संख्या का निर्देश किया गया है। ४. जिनकल्प की पांच भावनाएं तवेण सत्तेण सुत्तेंण एगत्तेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जओ ॥ (बृभा १३२८) Jain Education International आगम विषय कोश - २ जिनकल्प प्रतिपत्ता के लिए पांच तुलनाएं (भावनाएं) प्रतिपादित हैं - तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल । • तपोभावना से इन्द्रिययोगाचार्य : सिंह दृष्टांत जो जेण अणब्भत्थो, पोरिसिमाई तवो उ तं तिगुणं । कुणइ छुहाविजयट्ठा, गिरिनइसीहेण दिट्टंतो ॥ एक्केक्कं ताव तवं, करेड़ जह तेण कीरमाणेणं । हाणी न होइ जइआ, वि होज्ज छम्मासुवस्सग्गो ॥ अप्पाहारस्सन इंदियाइँ विसएसु संपवत्तंति । नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि ॥ तवभावणाई पंचिंदियाणि दंताणि जस्स वसमिति । इंदियजोगायरिओ, समाहिकरणाइँ कारयए ॥ (बृभा १३२९-१३३२) २४८ जो पौरुषी आदि तप का अभ्यासी नहीं है, वह तीन बार उस तप का आसेवन करता है। जैसे-सर्वप्रथम पौरुषी तप का तीन बार आसेवन कर उसमें सात्मीभाव को प्राप्त करता है, तत्पश्चात् पुरिमड्ड, एकाशन आदि तपोयोगों के साथ सात्मीकरण करता है। यह उपक्रम क्षुधा परीषह पर विजय पाने के लिए किया जाता है। 1 गिरिनदी - सिंह दृष्टांत - एक सिंह भरी हुई पहाड़ी नदी में तैरता हुआ मन ही मन यह निश्चित कर लेता है कि दूसरे तट पर वृक्ष आदि से उपलक्षित अमुक प्रदेश में मुझे जाना है। पानी के वेगपूर्ण प्रवाह में वह विपरीत दिशा में बह जाता है, तब लौटकर स्वस्थ होकर पुनः नदी में तैरता है तीव्र प्रवाह उसे बहाकर ले जाता है। सिंह अपने इस अभ्यास को तब तक चालू रखता है, जब तक वह नदी को तैरकर तट पर नहीं पहुंच जाता। इसी प्रकार तपोयोग में • संलग्न साधक तब तक तपोयोग का अभ्यास करता रहता है, जब तक विवक्षित तप आत्मसात् नहीं हो जाता । एक-एक तपोयोग का उतना अभ्यास करता है, जितना करने से विहित (पूर्व स्वीकृत) अनुष्ठान की हानि न हो। वह इतना अभ्यस्त हो जाता है कि यदि कभी छह मास पर्यंत उपसर्ग होता रहे - कोई देव आदि आहार को अनेषणीय करता रहे, तब भी वह छह मास तक निरन्तर उपवास कर लेता है, किन्तु अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं करता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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