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________________ चित्तसमाधिस्थान ४. देवदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा दिव्वं देवड्डुिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए । ५. ओहिनाणे वा से असमुप्पन्नपव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं जाणित्तए । ६. ओहिदंसणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुपज्जेज्जा ओहिणा लोयं पासित्तए । ७. मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जेज्जा अंतो मणुस्स खेत्ते अड्डातिजेसु दीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगते भावे जाणित्तए । ८. के वलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं जाणित्तए । ९. केवलदंसणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुपज्जा केवलकप्पं लोयालोयं पासित्तए । १०. केवलमरणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा सव्वदुक्खपहीणाए । (दशा ५/३, ७) चित्त की समाधि के दस स्थान (हेतु) हैं, जैसे१. धर्मचिन्ता - किसी को अभूतपूर्व धर्मचिन्ता उत्पन्न होती है, उसमें वह सब धर्मों (वस्तु-स्वभावों) को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। २. संज्ञीज्ञान - किसी को अभूतपूर्व संज्ञीज्ञान (जातिस्मृति) उत्पन्न होता है। उससे वह जान लेता है कि पूर्वभव में मैं अमुक था । ३. स्वप्नदर्शन-किसी को अभूतपूर्व स्वप्न-दर्शन होता है । वह यथार्थ स्वप्न देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है । ४. देवदर्शन - किसी को अभूतपूर्व देव दर्शन होता है, उससे वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है । ५. अवधिज्ञान - किसी को अभूतपूर्व अवधिज्ञान प्राप्त होता है। उससे वह लोक को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ६. अवधिदर्शन - किसी को अभूतपूर्व अवधिदर्शन प्राप्त होता है। उससे वह लोक को देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ७. मनः पर्यवज्ञान - किसी को अभूतपूर्व मनः पर्यवज्ञान प्राप्त होता है। उससे वह अढ़ाई द्वीप और समुद्र - मनुष्यलोक में विद्यमान समनस्क पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत Jain Education International आगम विषय कोश - २ भावों को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ८. केवलज्ञान - किसी को अभूतपूर्व केवलज्ञान प्राप्त होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक- अलोक को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ९. केवलदर्शन - किसी को अभूतपूर्व केवलदर्शन प्राप्त होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक- अलोक को देखकर चैतसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। १०. केवलिमरण - समस्त दुःखों को क्षीण करने के लिए केवलमरण को प्राप्त करने वाला चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। २३० (समाधि शब्द के अनेक अर्थ हैं - हित, सुख और स्वास्थ्य गुणों का स्थिरीकरण या स्थापन। चित्त की समाधि का अर्थ है - मन का समाधान, मन की प्रशान्तता । स्थान शब्द के दो अर्थ हैं- आश्रय और भेद । समवायांग में दस चित्तसमाधिस्थानों का उल्लेख है। वहां स्वप्न दर्शन दूसरा और संज्ञीज्ञान तीसरा स्थान है दस स्थानों की व्याख्या इस प्रकार है I १. धर्मचिन्ता - पदार्थों के स्वभाव की अनुप्रेक्षा । जो अनादिअतीत काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, वैसी धर्मचिन्ता के उत्पन्न होने पर अर्द्धपुद्गलपरावर्त काल की सीमा से उस व्यक्ति का मोक्ष अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसी धर्मचिन्ता से व्यक्ति का मन समाहित हो जाता है और वह जीव आदि के यथार्थ स्वरूप को जानकर, परिहरणीय कर्म का परिहार कर अपना कल्याण साध लेता है । २. स्वप्नदर्शन - जैसे भगवान् महावीर को अस्थिकग्राम में स्वप्न दर्शन हुआ। दस स्वप्न देखे। ये दसों स्वप्न यथार्थ थे, भावी कल्याण के सूचक थे। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को यथार्थ स्वप्न दर्शन होता है, वह भावी कल्याण की रेखाएं जानकर चित्तसमाधि को प्राप्त हो जाता है। ३. संज्ञीज्ञान - जातिस्मृति से पूर्वभवों का ज्ञान होने पर व्यक्ति संवेग की वृद्धि हो सकती है और उससे उसे चित्तसमाधि प्राप्त होती है। ४. देवदर्शन - देव अमुक-अमुक साधक के गुणों से आकृष्ट होकर उसे दर्शन देते हैं- उसके सामने प्रकट होते हैं। वे अपनी दिव्य देवऋद्धि-मुख्य देव परिवार आदि को, दिव्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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