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________________ प्रस्तुति ★ नेतृत्व क्षमता : सर्पशीर्ष-पुच्छ दृष्टान्त (द्र आचार्य) ★ विसंभोजविधि-प्रवर्तन : महागिरि-सुहस्ती (द्र साम्भोजिक) ग्रंथ के अंत में तीन परिशिष्ट हैं। प्रथम परिशिष्ट में लगभग पांच सौ कथाओं, दृष्टान्तों और उपमाओं का ससंदर्भ विषय-विभागपूर्वक संकेत दिया गया है। दूसरे-तीसरे (विशेष शब्द विमर्श-युगल शब्द विमर्श) परिशिष्ट में लगभग दो सौ शब्दों के अर्थ, परिभाषाएं ससंदर्भ निर्दिष्ट हैं। ०विमर्शनीय स्थल प्राचीन काल प्रवचन काल था। लिखने की परम्परा नहीं थी। कण्ठस्थ परम्परा जब लिपिबद्धता में परावर्तित हुई तो लिपिकर्ताओं ने अत्यंत जागरूकता से आगमपाठों को लिपिबद्ध किया। हो सकता है कहीं कोई पाठ छूट गया हो अथवा काल के प्रलम्ब अंतराल में किसी कारणवश विलुप्त हो गया हो। यथा-दशाश्रुतस्कंध की आठवीं दशा (परिशिष्ट) में चार तीर्थंकरों (अर्हत् ऋषभ, अर्हत् अरिष्टनेमि, अर्हत् पार्श्व और श्रमण महावीर) के सिद्ध होने वाले साधुओं की संख्या निर्दिष्ट है। अर्हत् पार्श्व के अतिरिक्त शेष तीन अर्हतों की सिद्ध होने वाली साध्वियों की संख्या भी निर्दिष्ट है। वह सिद्ध होने वाले साधुओं से दुगुनी है (साधु बीस हजार तो साध्वियां चालीस हजार, साधु डेढ हजार तो साध्वियां तीन हजार)। इसी को आधार मानकर हमने अर्हत् पार्श्व की सिद्धि प्राप्त साध्वियों की संख्या कोष्ठक में दे दी है-सिद्ध होने वाले एक हजार साधु (और दो हजार साध्वियां)। द्र अंतकृत प्रज्ञापुरुष श्रीमज्जयाचार्य ने सिद्धिगमन के प्रसंग में सब तीर्थंकरों के सिद्ध होने वाले साधुओं की संख्या का निर्देश किया है, साध्वियों का नहीं। केवल अर्हत् ऋषभ की साध्वियों की चर्चा की है-श्रमणी.... चाली सहस्र अमर पद पाई..... । (बड़ी चौबीसी १/२०)। ऋषभ के बीस हजार साधु और चालीस हजार साध्वियां सिद्ध हुईं। साधुओं से साध्वियों की दुगुनी संख्या की संभावना इससे भी पुष्ट होती है। फिर भी एक विमर्शनीय बिन्दु शेष रह जाता है, जब अर्हत् मल्लि के सिद्ध होने वाले अंतेवासियों की संख्या पढ़ते हैं-अर्हत् मल्लि पांच सौ साध्वियों और पांच सौ अनगारों के साथ सिद्ध बनीं (ज्ञा१/८/२३५)। पर यह संख्या मल्लिप्रभु के साथ ही सिद्ध होने वालों की है, उनके केवलज्ञानी मुनियों की संख्या तीन हजार दो सौ है (बड़ी चौबीसी १९/२४, २७)। हो सकता है, उनकी कैवल्यप्राप्त साध्वियों की संख्या छह हजार चार सौ हो। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। जिन्होंने इन्हें लिखा है, वे लिपिकार भी नाना ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं के सुरक्षासंवाहक बने हैं। किसी भी कारण से उनमें जो अशुद्धियां रह गई हैं, उनका सही-सही संशोधन विज्ञ पुरुष के वश की बात है। लगभग चार सौ वर्ष पुरानी बृहत्कल्पचूर्णि की प्रति देखी, उसके किसी एक उद्देशक में भी पचासों अशुद्धियां पाई गईं। सवृत्ति व्यवहार भाष्य की मुद्रित प्रतियों में भी सैकड़ों अशुद्धियां रह गई हैं। लिपिभेद या अर्थ बोध के अभाव में ऐसा हुआ है-यह संभव है। यथा व्यभा २७६३ की वृत्ति में कण्डकानि के स्थान पर कण्टकानि शब्द लिखा है। असंख्य संयमस्थानों अथवा संयमश्रेणिविशेष की संज्ञा है कण्डक (संख्यातीत परिणामस्थान)। हमने कण्डक शब्द ही रखा है। (द्र लेश्या) शब्दों की जोड़-तोड़, अक्षर व्यत्यय या अक्षर छूटने से जो अशुद्धि ध्यान में आयी, उसे भी ठीक किया गया है। व्यभा ९५६, ९५७ में निप्फादगसिस्साणं और आयतीय पडिबंधो के स्थान पर निप्फादग सिस्साणं और आयतीयऽपडिबंधो पाठ ग्रहण किया है। (द्र संघ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org =
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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