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________________ चिकित्सा २२४ आगम विषय कोश-२ समगमगा। जानकारी देता है। वह उन्हें बताता हैव्याधि-जो व्याधि हो, उसका नामोल्लेख। निदान-रोगात्पत्ति का कारण। विकार-प्रवर्धमान रोग की स्थिति। देश-रोगोत्पत्ति का कारण प्रवात अथवा निवात प्रदेश। काल-रोगवद्धि का समय पूर्वाह्न आदि। वय-रोगी की उम्र। धातु-वात-पित्तप्रकोप है या कफप्रकोप? आहार-आहार आदि की मात्रा न्यून या अधिक? अग्निबल-जठराग्नि मंद है या प्रबल? धृतिबल-धृतिबल मजबूत है या कमजोर? Ayat-si, TNTEN Bी ३१. निदानतुल्य औषधिवर्जन .""दोसोदए य समणं, ण होइ न निदाणतुल्लं वा॥ रोगाणामुदये औषधं न दीयते, यतश्च निदाना- दुत्थितो व्याधिः तत्तुल्यं-तत्सदृशमपि वस्तु रोगवृद्धिभयान्न दीयते: यद्रा दोषोदये दीयमानं शमनं न ननिदानतुल्यं भवति, किन्तु भवत्येव, ततो न दातव्यम्। ___ (बृभा ५२०२ वृ) रोगों का उदय होने पर वह वस्तु औषध रूप में नहीं दी जाती, जिस वस्तु के कारण रोग उत्पन्न हुआ है, क्योंकि उससे रोग की वृद्धि का भय रहता है। अथवा रोगों के उदय में दी जाने वाली औषधि रोगोत्पत्ति के कारणभूत द्रव्य की भांति नहीं होती, ऐसा नहीं है, वह होती ही है इसलिए उसको नहीं देना चाहिए। ३२. लघु व्याधि से पूर्व ..... की चिकित्सा वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया। काउमुवद्दवकिरियं, समेंति तो तं वणं वेज्जा। (व्यभा ७००) किसी रोगी की व्रणचिकित्सा प्रारम्भ करने पर यदि बीच में ही उसके ज्वर या धनुग्रह (वायविशेष) जैसी किसी बड़ी व्याधि का उपद्रव उत्पन्न हो जाये तो चिकित्सक पहले उस बड़ी व्याधि का शमन करते हैं, तत्पश्चात् उस व्रण का उपचार करते हैं। ३३. रोग की उपेक्षा से हानि : वृक्ष आदि दृष्टांत ...."णहछेज्जरिणेहि दिटुंतो॥ उवेक्खितो वाही दुच्छेज्जो भवति, जहा रुक्खो अंकरावस्थाए णहछेज्जो भवति.विवडितो पण जायमलो महाखंधो कुहाडेण वि दुच्छेज्जो। रिणं पि अवड्डिअं अप्पत्तणओ सुच्छेज्ज, विवड्डियं दुगुणचउगुणं दुच्छेग्जं। (निभा ४३३८ चू) व्याधि की उपेक्षा करने से वह दुःसाध्य हो जाती है। वक्ष दष्टांत-वक्ष जब अंकर अवस्था में होता है, तब उसका नख से भी छेदन किया जा सकता है। जिस वृक्ष की जड़ें जम जाती हैं, स्कंध बड़ा हो जाता है, उस वृक्ष को कुल्हाड़ी से काटना भी कठिन होता है। ० ऋण दृष्टांत-जब तक ऋण बढ़ता नहीं है, थोड़ा होता है, वह सरलता से चुकाया जा सकता है । बढ़े हुए दुगुने-चारगुने कर्ज को चुकाना बहुत कठिन है। चित्तचिकित्सा-चित्त विक्षेपहरणी क्रिया। १. द्रव्यचित्त-भावचित्त ____ * समाधिस्थ चित्त द्रचित्तसमाधि २. असमाधिस्थ चित्त के प्रकार और कारण ३. रागजन्य क्षिप्तता : मृत्युदर्शन बोध ० भयजन्य क्षिप्तता : अभय का प्रदर्शन ० वातजन्य क्षिप्तता और चिकित्सा ० उपसर्गजन्य क्षिप्तता : तप-जप प्रयोग | ४. क्षिप्तचित्त-संरक्षण : संघ द्वारा वैयावृत्त्य ५. क्षिप्तचित्त की परवशता क्षिप्तचित्त : प्रायश्चित्त संबंधी आदेश |६. दृप्तचित्त और क्षिप्तचित्त में अंतर ० शातवाहन दृष्टांत | ७. दीप्तचित्तता के कारण एवं निवारण ८. यक्षाविष्ट व क्षिप्त-दीप्त में अंतर ९. यक्षावेश के कारण १०. उन्माद के हेतु * भाव विशोधि से मोहचिकित्सा द्र लेश्या |११. वात-पित्तजन्य उन्माद की चिकित्सा १२. उन्माद और उपसर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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