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________________ आगम विषय कोश - २ अभिणववोसिट्ठासति, इतरे उवओग काउ गहणं तु । माहिस असती गव्वं, अणातवत्थं च विसघाती ॥ ( नि १२ / ३६ भा ४१९९) २२१ शरीर में व्रण पर गोबर का लेप किया जाता है। तत्काल विसर्जित गोबर अधिक गुणकारी होता है। उसके न होने पर चिरकाल व्युत्सृष्ट गोबर का उपयोग किया जाता है। छाया में स्थित तत्काल का भैंस का गोबर विषघातक होता है। उसके अभाव में गाय का गोबर काम में लिया जाता है। धूप में रखे हुए गोबर का रस सूख जाता है, अतः वह गुणकारी नहीं होता। २६. वमन, विरेचन आदि से चिकित्सा वमणं विरेयणं वा अब्भंगोच्छोलणं सिणाणं वा । नेहादितप्पण रसायणं व नरिंथ च वथि वा ॥ वण्ण-सर-रूव-मेहा, वंगवलीपलित-णासणट्ठा वा । दीहाउ तट्ठता वा, थूल- किसट्टा व तं कुज्जा ॥ वयत्थंभणं एगमणेगदव्वेहिं रसायणं, णासारसादिरोगणासणत्थं णासकरणं णत्थं, कडिवाय-अरिसविणासणत्थं च अपाणद्दारेण वत्थिणा तेल्लादिप्पदाणं वत्थिकम्मं । (निभा ४३३०, ४३३१ चू) वमन, विरेचन, गात्र - अभ्यंग (तैल आदि से मालिश), उत्क्षालन ( देशस्नान), स्नान आदि से शरीर को स्वस्थ रखा जाता है। वर्ण, स्वर, रूप, मेधा आदि को उत्कृष्ट बनाने के लिए घृत आदि का तर्पण (स्नेहपान ) किया जाता है। एक-अनेक द्रव्यों से बने रसायनों (जरा-व्याधिविनाशक भेषज) के सेवन से वयस्तंभन (स्थिरयौवन) होता है । नस्य- नाक के अर्श को मिटाने लिए नस्यकरण (नाक से घी आदि सूंघना) किया जाता है। वस्तिकर्म - कटिवात, अर्श आदि मिटाने के लिए अपानद्वार से तेल आदि चढ़ाया जाता है। मुंह आदि के दाग, शरीर की झुर्रियां आदि मिटाने, दीर्घायु बनने, कृश से स्थूल और स्थूल से कृश होने के लिए विविध द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। (जो स्वस्थ व्यक्ति को ऊर्जस्वल और अस्वस्थ व्यक्ति Jain Education International चिकित्सा को स्वस्थ बनाता है, वह रसायन है। रसायन भेषज का सेवन करने से दीर्घायु, स्मरणशक्ति, मेधा, आरोग्य, तारुण्य, प्रभा, वर्ण और स्वर का औदार्य, देह और इन्द्रियों की शक्तिसंपन्नता, वाक्सिद्धि, प्रति, कांति आदि गुण निष्पन्न होते हैं। - च चिकित्सास्थान १/५-८ शरीर की शोभा - विभूषा के लिए वमन, विरेचन आदि क्रियाएं मुनि के लिए निषिद्ध हैं, क्योंकि इनसे ब्रह्मचर्य की साधना में बाधा आती है ।) वमण-विरेगादीहिं, अब्भंतर- पोग्गलाण अवहारो । तेल्लुव्वट्टण - जल- पुप्फ-चुण्णमादीहि बज्झाणं ॥ (निभा २३१७) वमन, विरेचन आदि द्वारा शरीर के भीतरी दूषित पित्त - श्लेष्म आदि का अपहार किया जाता है। तैलमर्दन, उबटन, जल, पुष्प-चूर्ण आदि द्वारा शरीर के बाहरी अशुचिभूत पी, रक्त आदि का शोधन किया जाता है । २७. अतिश्रम से बुद्धिक्षीणता परिश्रमेण बुद्धेः संव्यापादनात्। (व्यभा २५९९ की वृ) अतिश्रम से चित्तविक्षेप - बुद्धि-विनाश होता है । २८. क्षेत्र आदि की स्निग्धता से आयु- मेधा वृद्धि द्धिमधुरेहि आउं, पुसति देहिं दिपाडवं मेहा । ... यथा देवकुरोत्तरासु क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं, सुसमसुसमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद्दीर्घत्वमायुषः, तथेहापि स्निग्धमधुराहारत्वात् पुष्टिरायुषो भवति, सा च न पुद्गलवृद्धेः, किन्तु युक्तग्रासग्रहणात् क्रमेण भोग इत्यर्थः । देहस्य च पुष्टिरिन्द्रियाणां च पटुत्वं भवति, मेधा च खीरादिणा भवति । (निभा ३५४१ चू) जैसे देवकुरु - उत्तरकुरु में क्षेत्र की स्निग्धता के कारण तथा सुषमसुषमा अर में काल की स्निग्धता के कारण आयु दीर्घ होती है, वैसे यहां (भरतक्षेत्र में) भी स्निग्ध-मधुर आहार आयु पुष्ट होती है। वह पुष्टि आयु की पुद्गलवृद्धि रूप नहीं होती । पुष्टि से तात्पर्य है युक्त आहार-विहार से आयु का क्रमपूर्वक भोग होता है । देह की पुष्टि और इन्द्रियों का पाटव बढ़ता है। क्षीर आदि से मेधा बढ़ती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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