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________________ गीतार्थ उत्कृष्ट बहुश्रुत गीतार्थ केवली की भांति होता है । सारा ज्ञेय चार प्रकार का होता है- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। जैसे केवली चतुर्विध ज्ञेय तथा सचित्त - अचित्त-मिश्रपरीत अनन्त वनस्पति को लक्षण से जानता है, प्रज्ञापित करता है, वैसे ही श्रुतधर श्रुत के आधार पर जानता है, प्ररूपित करता है। यद्यपि केवली द्वादशांगविद् - श्रुतकेवली से ज्ञान में अधिक होता है, यह सही है परन्तु प्रज्ञप्ति में वह श्रुतकेवली के तुल्य होता है। जो भाव श्रुतज्ञान के विषयभूत नहीं हैं, केवल उन्हें जान सकता है किन्तु वह भी उनकी प्रज्ञापना नहीं कर सकता क्योंकि केवलज्ञान मूक है। * द्र श्रीआको १बहुश्रुत 'बहुश्रुत: शंख आदि की उपमा ६. गीतार्थ और कृतयोगी में अंतर श्रुतार्थप्रत्युच्चारणासमर्थः कृतयोगी । यस्तु श्रुतार्थप्रत्युच्चारणसमर्थः स गीतार्थः । (निभा ३००१ की चू) कृतयोगी – जो श्रुत-अर्थ के प्रत्युच्चारण में समर्थ नहीं है। गीतार्थ—जो श्रुतार्थ के प्रत्युच्चारण में कुशल है। सूत्रोपदेशेन मोक्षाविराधीकृतो न्यस्तो योगो मनोवाक्कायव्यापारात्मकः स कृतयोगः स येषामस्ति ते कृतयोगिनः । बहुश्रुताः प्रकीर्णकानामपि सूत्रार्थधारणात् । (व्यभा १४७८ की वृ) सूत्रोपदेश के अनुरूप मोक्षहेतु मन-वचन-काया का विराधनाविहीन प्रवृत्त्यात्मक विन्यास कृतयोग है। जो उसमें संलग्न है, वह कृतयोगी है। बहुश्रुत प्रकीर्णकों के सूत्रार्थ को भी धारण करता है। गुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन । योगनिग्रह । गुत्तिंदिय सोतिंदियविसयपयारनिरोधो वा सोतिंदिप्पत्सु वा अत्थेसु रागदोसनिग्गहो। एवं पंचण्ह वि । (दशा ५/७ की चू) गुप्तेन्द्रिय के दो अर्थ हैं ० • शब्द आदि पांचों इन्द्रियविषयों की प्रवृत्ति का निरोध । जो इन्द्रियों को प्राप्त विषय हैं, उनमें राग-द्वेष का निग्रह । ( गुप्ति तीन प्रकार की है – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति । संयत मनुष्य के तीनों ही गुप्तियां होती हैं। Jain Education International आगम विषय कोश - २ अगुप्ति तीन प्रकार की है— मनअगुप्ति, वचनअगुप्ति, कायअगुप्ति । नैरयिक, दस भवनपति, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, असंयत मनुष्य, वानमंतर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देवों में तीनों ही अगुप्तियां होती हैं । २०२ गुप्त का शाब्दिक अर्थ है - रक्षा। मन, वचन और काय के साथ योग होने पर इसका अर्थ होता है-मन, वचन और काय की अकुशल प्रवृत्तियों से रक्षा और उनका कुशल प्रवृत्तियों में नियोजन । असम्यक् की निवृत्ति हुए बिना कोई भी प्रवृत्ति सम्यक् नहीं बनती, इस दृष्टि से सम्यक्प्रवृत्ति में गुप्ति का होना अनिवार्य माना गया है। सम्यक् प्रवृत्ति से निरपेक्ष होकर यदि गुप्ति का अर्थ किया जाए तो इसका अर्थ होगा-निरोध। महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है – 'चित्तवृत्तिनिरोधो योग: । ' ( योगदर्शन १/१ ) जैन दृष्टि से इसका समानान्तर सूत्र लिखा जाए तो वह होगा ‘चित्तवृत्तिनिरोधो गुप्तिः ।' -स्था ३/२१-२३ टि साधना के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन अपेक्षित होता है। प्रवृत्ति के बिना जीवन की यात्रा नहीं चलती और निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति में होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए यह निर्देश है कि मन, वचन तथा शरीर की सम्यक् प्रवृत्ति और गुप्ति दोनों करनी चाहिए। उनकी सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला मुनि मनसमित, वचनसमित और कायसमित कहलाता है। उनकी निवृत्ति करने वाला मनोगुप्त, वचनगुप्त और कायगुप्त कहलाता है । - भ २ / ५५ का भाष्य ) * समिति और गुप्ति..... द्र श्रीआको १ गुप्ति, समिति मनोगुप्ति: श्रेष्ठपुत्र मुनि दृष्टांत मणोगुत्तीए - एगो सेट्ठिसुतो सुन्नघरे पडिमं ठितो । पुराणभज्जा से सन्निरोहमसहमाणी उब्भामइल्लेण समं तं चैव घरमतिगता । पल्लंकखिल्लएण य साधुस्स पादो विद्धो । तत्थ अणायारं आयरति । ण य तस्स भगवतो मणो विणिग्गतो सट्टाणातो । (दशानि ९२ की चू) एक श्रेष्ठपुत्र दीक्षित होकर एक शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित हो गया। उसकी त्यक्तभार्या निरोध को सहन नहीं कर सकी और वह एक जार पुरुष के साथ उसी शून्यगृह में आई। पल्यंक बिछाया। पल्यंक के पायों में कील लगे हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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