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________________ कुत्रिकापण १८६ आगम विषय कोश-२ १. कुत्रिकापण का तात्पर्यार्थ कुत्ति पुढवीय सण्णा, जं विन्जति तत्थ चेदणमचेयं। गहणुवभोगे य खमं, न तं तहिं आवणे णत्थि॥ (बृभा ४२१४) क शब्द पृथ्वी का वाचक है। त्रिक का अर्थ है तीन लोक-स्वर्ग, मर्त्य और पाताल।आपण का अर्थ है दुकान। ___तीनों पृथ्वियों पर सब लोगों के ग्रहण और उपभोग के योग्य जितने भी चेतन और अचेतन (जीव, धातु और मूल) पदार्थ हैं, वे कुत्रिकापण में नहीं हैं-ऐसा नहीं है। (उस दकान में सब पदार्थों का विक्रय होता है।) (कुत्तिय के संस्कृत रूप दो मिलते हैं-कुत्रिक और कुत्रिज। जिस दुकान में स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और पाताललोक-इन तीनों में होने वाली सभी वस्तुएं मिलती हैं, उसे 'कुत्रिकापण' कहा जाता है। जिसमें जीव, धातु और मूल (जड़)-ये तीनों प्रकार के पदार्थ मिलते हैं, उसे 'कत्रिकापण' कहा जाता है।-भ २/९५ का भाष्य) २. कुत्रिकापण की उत्पत्ति पव्वभविगा उ देवा, मणयाण करिति पाडिहेराई। लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो॥ ___(बृभा ४२१८) जिन पुण्यशाली व्यक्तियों के कोई देव पूर्वभव के मित्र होते हैं, वे प्रातिहार्य-यथाभिलषित पदार्थ उपस्थित कर देते हैं। (इस प्रकार कुत्रिकापणों की उत्पत्ति होती है।) जैसे लोक में आश्चर्यभूत नैसर्प आदि नौ महानिधि चक्रवर्ती के चरणों में प्रातिहार्य उपस्थित करते हैं। (कुत्रिकापण में किसी वणिक् द्वारा आराधित व्यन्तर देव वे सारी वस्तुएं कहीं से भी लाकर दे देता है, जो ग्राहकों द्वारा याचित होती हैं। उनका मल्य वणिक ग्रहण करता है। एक मत यह भी है कि कुत्रिकापण के अधिष्ठाता व्यंतर देव ही होते हैं और वे ही वस्तु का मूल्य ग्रहण करते हैं। ये विशिष्ट आपण उज्जयिनी, राजगृह आदि प्रतिनियत नगरों में ही होते थे।-द्र श्रीआको १ कुत्रिकापण) ३. त्रिविध मूल्यनिर्धारण : शालिभद्र की उपधि पणतो पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं। उक्कोस सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण उवधी उ॥ विक्कितगं जधा पप्प होइ रयणस्स तव्विहं मुल्लं। कायगमासज्ज तहा, कुत्तियमुल्लस्स णिक्कं ति॥ एवं ता तिविह जणे, मोल्लं इच्छाएँ दिज्ज बहुयं पि। सिद्धमिदं लोगम्मि वि, समणस्स वि पंचगं भंडं॥ ..."दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं एयसहस्सेहिं॥ __"राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत्।" राजगृहे श्रेणिके राज्यमनुशासति शालिभद्रस्य सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्षायां शतसहस्राभ्याम् उपकरणं रजोहरणप्रतिग्रहलक्षणमानीतम्।(बृभा ४२१५-४२१७, ४२१९ वृ) यदि कोई सामान्य व्यक्ति प्रवजित होता. तो उसके लिए कुत्रिकापण में पांच रुपये के मूल्य में उपधि (रजोहरणपात्र) प्राप्त होती थी। इभ्य, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदि मध्यम कोटि के पुरुषों की उपधि का मूल्य हजार रुपये तथा चक्रवर्ती, मांडलिक आदि उत्तम पुरुषों की उपधि का मूल्य लाख रुपये था। यह जघन्य मूल्य था, उत्कृष्ट मूल्य तीनों कोटि के पुरुषों के लिए अनियत था। सामान्यतः जघन्य मूल्य पांच, मध्यम मूल्य हजार और उत्कृष्ट मूल्य एक लाख रुपये था। जैसे मरकत, पद्मराग आदि रत्नों का मूल्य मुग्ध या प्रबुद्ध विक्रेता के आधार पर कम या अधिक होता है, वैसे ही कुत्रिकापण में ग्राहक की क्षमता के अनुसार मूल्यनिर्धारण होता था। इस प्रकार तीनों प्रकार के पुरुष अपनी इच्छा से यथोक्त प्रमाण से अधिक मूल्य भी दे सकते थे। प्रतिनियत कुछ भी नहीं था। लोक में भी यह बात प्रसिद्ध थी कि श्रमण के भी पांच रुपये मूल्य के भंडोपकरण होते हैं। शालिभद्र की उपधि-राजगृह में राजा श्रेणिक के शासनकाल में पुण्यशाली शालिभद्र की दीक्षा के अवसर पर कत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए गए। उनमें से प्रत्येक का मूल्य एकएक लाख रुपये था। राजगृह नगर कुत्रिकापण युक्त था। ४. उज्जयिनी में कुत्रिकापण : व्यंतर-विक्रय पज्जोए णरसीहे, णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी। भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं ॥ कम्मम्मि अदिज्जंते, रुट्ठो मारेइ सो य तं घेत्तुं। भरुयच्छाऽऽगम, वावारदाण खिप्पं च सो कुणति॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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