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________________ आगम विषय कोश-२ १६३ कर्म उदय वेदना है। वह दो प्रकार की होती है-विपाकजा और कर्मणो बन्धकास्ते परस्परंतुल्याः, एकस्यैव सातवेदनीयस्य अविपाकजा। यह पुद्गलों के होने पर होती है, उनके अभाव द्विसमयस्थितिकस्य सर्वेषामपि बन्धनात्। तदेवं न योगमें नहीं होती। अथवा जो कर्म पदगल बद्ध. स्पष्ट और निधत्त प्रत्ययः कर्मबन्धस्याल्पबहत्वविशेषः, किन्तु रागादितीव्रहै वह विपाकज भी होता है और अविपाकज भी। जो मन्दताप्रत्ययः। (बृभा ३९४९, ३९५० वृ) निकाचित होता है, वह नियमतः विपाकज होता है। अयोगिकेवली निश्चित रूप से कर्मबंध नहीं करते। ० अजीवभावप्रयोगबंध : औदारिक शरीर आदि जो उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली (ग्यारहवें, ___ अजीवभावप्पयोगबंधो दुविधो-विपाकजो अवि बारहवें और तेरहवें गुणस्थान वाले जीव) हैं, उनके पाकजो याविपाकजो जो सुभत्तेण गहिताणं पोग्गलाणं ईर्यापथिक-मात्र योगजन्य कर्मबंध होता है, जो सबके परस्पर सुभो चेव उदतो।अविपाकजोणचेव उदओ अण्णहा वा। तुल्य होता है, क्योंकि वे सभी दो समय की स्थिति वाले एक अजीवभावबंधो चउदसविहो, तं जहा-ओरालियं सातवेदनीय कर्म का ही बंध करते हैं। इस प्रकार योगप्रत्ययिक वा सरीरं ओरालियसरीरपरिणामितं वा दव्वं, वेउव्वियं कर्मबंध में अल्पत्व और बहुत्व का भेद नहीं होता, किन्तु वा सरीरं, वेउव्वियसरीरपरिणामियं वा दव्वं, आहारगंवा राग-द्वेष की मंदता-तीव्रता के कारण ही कर्मबंध का सरीरं, आहारगसरीरपरिणामियं वा दव्वं, तेयगंवा सरीरं, अल्पबहुत्व होता है। तेयगसरीरपरिणामियं वा दव्वं, कम्मयं वा सरीरं, कम्मय रागहोसाणुगता, जीवा कम्मस्स बंधगा होति। सरीरपरिणामितं , वा दव्वं, पयोगपरिणामिते वण्णे गंधे रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीतो॥ रसे फासे। (दशानि १४० की चू) (व्यभा १११०) ___ अजीवभावप्रयोगबंध दो प्रकार का हैविपाकज-शुभरूप में गृहीत पुद्गलों का शुभरूप में उदय। राग-द्वेष से अनुगत जीव कर्म का बंध करते हैं। रागअविपाकज-उदय होता ही नहीं, अथवा अन्यथा उदय होता है। ही द्वेष की तरतमता के आधार पर कर्मबंध की तरतमता होती है। अजीवभावबंध के चौदह प्रकार हैं ८. बंध का हेतु पदार्थ नहीं १. औदारिक शरीर २. औदारिक शरीर परिणामित द्रव्य ३. तुल्ले वि इंदियत्थे, सज्जति एगो विरज्जती बितिओ। वैक्रिय शरीर ४. वैक्रिय शरीर परिणामित द्रव्य ५. आहारक ____ अज्झत्थं खु पमाणं, न इंदियत्था जिणा बेंति ॥ शरीर ६. आहारक शरीर परिणामित द्रव्य ७. तैजस शरीर मणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तए तेसु। ८. तैजस शरीर परिणामित द्रव्य ९. कार्मण शरीर १०. कार्मण इति वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं॥ शरीर परिणामित द्रव्य ११. प्रयोगपरिणामित वर्ण १२. प्रयोग . (व्यभा १०२८, १०२९) परिणामित गंध १३. प्रयोगपरिणामित रस १४. प्रयोगपरिणामित __ इन्द्रियों के रूप आदि विषय समान होने पर भी एक स्पर्श। व्यक्ति उन पर आसक्त हो जाता है और दूसरा उनसे विरक्त (अजीवोदयनिष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- हो जाता है। कर्मबंध में आन्तरिक भाव-आत्मपरिणाम ही औदारिक शरीर, औदारिक शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित प्रमाण हैं, इन्द्रिय-विषय नहीं-ऐसा अर्हतों ने प्रतिपादित पुद्गल द्रव्य... पांचों शरीरों के प्रयोग द्वारा परिणामित वर्ण, किया है। गंध, रस और स्पर्श।-अनु २७६) विषय-उपलब्धि के अभाव में भी कोई मन से ही ७. अबंध, बंध की तुल्यता और अल्पबहुत्व उन पर राग-द्वेष करता है और ठीक इसके विपरीत विषयों के ..."पंडिय"अबंधी य"इरियरवहिबंधगा तुल्ल॥ होने पर भी किसी का मन उनसे विरक्त हो जाता है। अतः ___ "अयोगिकेवली तु नियमादबन्धकः । ये तूपशान्त- परिणामधारा के अनुसार कर्मबंध होता है। इन्द्रिय-विषय मोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिन ऐर्यापथस्ययोग-मात्रप्रत्ययस्य प्रमाण नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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