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________________ आगम विषय कोश - २ अतः जिन आज्ञा की आराधना के लिए हम आपको ऐसा कहते हैं, मत्सर या प्रद्वेष से प्रेरित होकर नहीं' - इस प्रकार आचार्य प्रमत्त शिष्य की सारणा वारणा करते हैं । १४. सारणा की अनिवार्यता : प्रमादी का परित्याग सारेयव्वो नियमा, उवसंपन्नो सि जं निमित्तं तु । तं कुणसु तुमं भंते!, अकरेमाणे विवेगो उ ॥ (व्यभा २८८ ) ते परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा । तंबोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि ॥ (बृभा १२७२) जो उपसंपन्न है, उसकी नियमतः सारणा की जाती है - भदन्त ! तुम ज्ञानाभ्यास आदि जिस निमित्त से उपसंपन्न हो, उसे उसी रूप में सम्पादित करो - इस प्रकार सारणा करने पर भी वह अपने लक्ष्य में एकनिष्ठ नहीं होता है तो उसका परित्याग कर दिया जाता है 1 तीन बार जागरूक करने पर भी यदि वह प्रमाद से निवृत्त नहीं होता है तो आचार्य उसे गण से निष्कासित कर देते हैं, तब वह स्वयं या दूसरों के द्वारा प्रेरित होकर प्रमाद से निवृत्त हो जाता है और संकल्प करता है- भंते! अब मैं इस गलती को पुनः नहीं करूंगा। आप मुझे क्षमा करें। तब गुरु उसे अनुशासित करते हैं--जैसे एक सड़ा हुआ ताम्बूलपत्र (पान) अन्य पत्रों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तुम स्वयं विनष्ट होकर मेरे अन्य शिष्यों का भी नाश करोगे। इसलिए मैंन तुम्हें गण से निष्काशित किता है। १५. प्रमादी द्वारा पश्चात्ताप, गच्छ द्वारा निवेदन .... सेज्जायरनिब्बंधे, कहियाऽऽगय न विणए हाणी ॥ को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए । दुवि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं बिंति ॥ होति हुपमाय-खलिया, पुव्वब्भासा य दुच्चया भंते! । न चिरं च जंतणेयं, हिया य अच्वंतियं अंते ॥ (बृभा १२७४-१२७६ ) १४९ (जो उपसम्पन्न शिष्य बार-बार कहने पर भी प्रमाद से निवृत्त नहीं होते हैं तो आचार्य उन्हें वहीं छोड़ कर प्रच्छन्न Jain Education International उपसम्पदा रूप से अन्यत्र चले जाते हैं। आचार्य के विहार करने के पश्चात् जो शिष्य कहें कि बहुत अच्छा हुआ उग्रदण्ड देने वाले आचार्य से हमें मुक्ति मिल गई- उन शिष्यों का यहां प्रसंग नहीं है। जो शिष्य कहें - हा ! कष्ट है, आचार्य हमें छोड़कर कहां चले गए ?) वे आग्रहपूर्वक शय्यार से पूछते हैं, तब शय्यातर बता देते हैं कि क्षमाश्रमण अमुक ग्राम में गए हैं। वे तत्काल विहार कर उस ग्राम में आचार्य के पास पहुंच जाते हैं। पहुंचते ही वहां स्थित साधु आदरपूर्वक उनसे उपधि, दण्ड आदि ले लेते हैं, जिससे विनय की परम्परा अक्षुण्ण बनी रहती है। ( आगंतुक शिष्य आचार्य के चरणों में गिर जाते हैं, टूटी हुई मुक्तामाला की भांति अश्रुधारा बहाते हुए करबद्ध निवेदन करते हैं भंते! हमारा अपराध क्षमा करें। हमें करुणार्द्र दृष्टि से देखें, अपने प्रतीच्छक के रूप में पुनः स्वीकार करें, स्मारणा, वाचना आदि के द्वारा हम पर अनुग्रह करें। महामना ! महात्मा प्रणिपातपर्यवसित प्रकोप वाले होते हैं- सानुनय विनम्र नमनमात्र से उनका कोप शान्त हो जाता है। अब हम प्रयत्नपूर्वक प्रमाद का परिहार करेंगे।) तत्पश्चात् गच्छ के साधु करबद्ध हो आचार्य को प्रसन्न करते हैं, उन्हें स्वीकृति देने के लिए निवेदन करते हैं। गुरु कहते हैं - आर्यो ! दुष्ट अश्वों के सारथि के समान मुझे इनका आचार्य बनना इष्ट नहीं है। आचार्य के ऐसा कहने पर साधु पुनः प्रार्थना करते हैं— वह क्या सारथि, जो विनीत घोड़ों का दमन करता है ? जो अविनीत घोड़ों का दमन करता है, उन्हें प्रशिक्षित करता है, लोग उसे अश्वदम ( श्रेष्ठ सारथि) कहते हैं । भंते! अनेक जन्मों के पूर्वाभ्यास के कारण प्राणियों के लिए प्रमाद और स्खलना को छोड़ना प्रायः बहुत कठिन है। आप तो सारणा वारणा द्वारा नियंत्रण कर रहे हैं, वह चिरकालिक नहीं है। (अप्रमाद जब इनका आत्मधर्म बन जाएगा, तब कौन करेगा स्मारणा ? कौन देगा उपदेश ? अपेक्षा भी नहीं रहेगी ) स्मारणा प्रारंभ की भांति परिणाम में दुस्सह नहीं है अपितु परिणाम में अत्यंत हितकर है। जो परिणामसुन्दर होता है, वह आपातकटुक होने पर भी उपादेय है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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