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________________ आगम विषय कोश-२ १३७ उपधि प्रतिदिन उपयोग में आने के कारण जीव-जंतुओं से संसक्त लेप के तीन प्रकार हैंनहीं होते, अतः ग्राह्य हैं। ० उत्कृष्ट लेप-खर नामक तिलतेल से निष्पन्न। (भीलों के पास प्रचुर मात्रा में तुंबे होते थे। ग्रामवासी ० मध्यम लेप-अतसी व कुसंभ के तेल से निष्पन्न। लोग अगाध जल वाली नदियों को तुंबों से तैरते थे। वनों में ० जघन्य लेप-सरसों के तेल से निष्पन्न। तुंबों का वपन होता था। व्याध और चोरों की पल्लियों में नवनीत, घृत और वसा से निर्वृत्त लेप अलेप है क्योंकि मिट्टी के पात्रों का अभाव होता था। वे कांजी, पानी आदि वह पात्र पर सम्यक् प्रकार से नहीं लगता है। तिलों के तेल से तुम्बों में डालकर रखते थे। भिक्षाचर भिक्षा के लिए तुम्बे म्रक्षित तथा गुड़ और लवण से भरे शकटों में जो लेप होता है, रखते थे। यंत्रशाला में गुड़-उत्सेचन आदि के लिए तुम्बे रखे वह भी अलेप है क्योंकि लवण आदि के योग से वह अप्रशस्त जाते थे। -बृभा ४०३५ की वृ) हो जाता है। ३६. लेप के प्रकार : तज्जात-युक्ति-द्विचक्र ३७. पात्रलेप क्यों? अणवटुंते तह वि उ, सव्वं अवणेत्तु तो पुणो लिंपे। संजमहेउं लेवो, न विभूसाए वयंति तित्थयरा। तज्जाय सचोप्पडयं, घट्ट रएउं ततो धोवे॥ सति-असतीदिटुंतो, विभूसाए होंति चउगुरुगा। तज्जाय-जुत्तिलेवो, दुचक्कलेवो य होइ नायव्यो।' (बृभा ५२७) जुत्ती य पत्थरायी, पडिकुट्ठा सा उ सन्निही काउं। तीर्थंकरों ने कहा है-पात्र के लेप संयम साधना के दय सुकुमाल असन्निहि, दुचक्कलेवो अतो इट्ठो॥ लिए देना चाहिए न कि विभूषा अथवा गौरव के लिए। जो (बृभा ५२४-५२६) विभूषा की भावना से पात्रों पर लेप देता है, वह चतुर्गुरु - लेप के तीन प्रकार हैं प्रायश्चित्त का भागी है। लेप देने से यदि विभूषा होती है, तो १. तज्जातलेप २. युक्तिलेप ३. द्विचक्रलेप वह संयमहेतु ही है। १. तज्जात लेप–पात्र पर उत्कृष्ट पांच लेप लगाने पर यदि सती स्त्री की विभूषा और असती स्त्री की विभूषा वह लेप पात्र से एकीभूत नहीं होता है तो उसे उतारकर पुन: के उद्देश्य में अन्तर होता है। सती स्त्री अपने कुलाचार के लेप लगाया जाता है। जब पात्र को तेल आदि से चुपड़ा जाता लिए और असती स्त्री जार की संतुष्टि के लिए विभूषा है, उस पर रजें लग जाती हैं, तब उसके लेप को घटक करती है। पाषाण से रगड़कर पुनः उसी लेप से पात्र को रंगा जाता है. इसी प्रकार जो साधु संयमरूप कुलाचार हेतु लेप रूप फिर धोया जाता है-वह तज्जातलेप है। विभूषा करता है, वह निर्दोष है। जो असंयम रूप जारतुष्टि हेतु २, ३. युक्तिलेप-द्विचक्रलेप-प्रस्तर, शर्करा, लोहकिट्ट आदि अथवा गौरव के कारण लेपविभूषा करता है, वह सदोष है। से किया गया लेप युक्ति लेप है। भगवान् ने युक्तिलेप का निषेध किया है क्योंकि इसमें सन्निधि दोष होता है। द्विचक्र उड्डादीणि उ विरसम्मि भुंजमाणस्स होति आयाए। लेप (शकटलेप) सुकुमार होता है, इसमें पानी के जन्तु दुग्गंधि भायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि॥ स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं, उन प्राणियों की हिंसा से बचा . (बृभा ४७७) जा सकता है और इस लेप में सन्निधि दोष भी नहीं होता, __ अलेपकृत पात्र अत्यन्त विरस होता है। उसमें आहार अत: द्विचक्र लेप इष्ट है। करने से वमन, व्याधि अथवा भोजन के प्रति अरुचि पैदा हो ० लेप के प्रकार : उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य जाती है। लोग भिक्षा देते समय दर्गन्धित पात्र को देखकर खरअयसि-कुसुंभसरिसव, कमेण उक्कोसमझिम जहन्नो। मुनियों की और प्रवचन की गर्दा करते हैं। नवणीए सप्पि वसा, गुले य लोणे अलेवो उ॥ ३८. बिना आज्ञा पात्र-ग्रहण से प्रायश्चित्त (बृभा ५२९) दुविधा छिन्नमछिन्ना, भणंति लहुगो य पडिसुणंते या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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