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________________ आगम विषय कोश--२ १३१ उपधि ० झषकंटा-मछली के कांटे की आकृति में सीना अथवा एक पहले ही हाथ को फैला कर सूई को भूमि पर रखे 'यह वस्तु ओर से तूमना (रप्फू करना)। है' ऐसा कहे, अपने हाथ से उसे गृहस्थ के हाथ में न सौंपे। ० विसरिका-मछली पकड़ने के जाल के आकार में सीना २२. चिलिमिलिका के प्रकार और प्रमाण अथवा गिरगिट की गति के आकार में सीना। सुत्तमई रज्जुमई, वागमई दंड-कडगमयई य। २०. सूई का स्वरूप और उपयोग । पंचविह चिलिमिली पुण, उवग्गहकरी भवे गच्छे । वेलुमयी, लोहमयी, दुविधा सूयी समासओ होति। हत्थपणगं तु दीहा तिहत्थ-रुंदोन्निया असइखोमा। चउरंगुलप्पमाणा, सा सिव्वणसंधणट्ठाए। एतप्पमाण गणणेक्कमेक्क, गच्छं व जा वेढे ॥ लोहमती सूती साहुणा ण घेत्तव्वा परं आयरियस्स (बृभा २३७४, २३७५) एक्का भवति, सेसाण वेलुमती सिंगमती वा गणणप्प चिलिमिलिका के पांच प्रकार हैंमाणेण एक्केक्का भवति । पमाणप्पमाणेण चतुरंगुला १. सूत्रमयी-वस्त्रमयी अथवा कम्बलमयी। भवति। किं कारणंघेप्पति? इमं-तुण्णणं उक्कइयकरणं २. रज्जुमयी-ऊन आदि के डोरे से बनी हुई। वा सिव्वणं दुगातिखंडाण संधणं। (निभा ७१८ चू) ३. वल्कमयी-वक्ष (सन आदि) की छाल से निष्पन्न। सामान्यतः दो प्रकार की सूई होती है-वेणुमयी और ४. दण्डकमयी-बांस, वेत्र आदि की यष्टि से निष्पन्न। लोहमयी। साधुओं को लोहमयी सूई ग्रहण नहीं करनी चाहिए ५. कटकमयी-वंशकट आदि से निष्पन्न। किन्तु आचार्य के लिए एक सूई ली जा सकती है, शेष प्रत्येक चिलिमिलिका गच्छवासी मुनियों के लिए उपग्रहसाधु के पास वेणुमयी या शृंगमयी एक-एक सूई होती है। कारी होती है। यह पांच हाथ लम्बी तथा तीन हाथ विस्तीर्ण यह चार अंगुल प्रमाण होती है। सूई ग्रहण के मुख्य दो प्रमाण वाली होती है। सूत्रमयी और और्णिकी चिलिमिली प्रयोजन है प्राप्त न होने पर क्षौमिकी (रेशमी) का ग्रहण किया जा ० सीवन-रप्फू करना (तूमना) आदि। सकता है। गणना प्रमाण की अपेक्षा से प्रत्येक साधु एक-एक ० संधान-दो, तीन आदि खंडों को जोड़ना। चिलिमिलिका रख सकता है। अथवा जितनी से गच्छ वेष्टित २१. सूई आदि सौंपने की विधि किया जा सके, उतने प्रमाण वाली चिलिमिलिकाएं ग्रहण की ......"गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सई वा, जा सकती है। पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा, णहच्छेयणए वा, तंअप्पणो चिलिमिलिका का प्रयोजन एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता णो अण्णमण्णस्स पडिलेहोभयमंडलि, इत्थी-सागारियट्ठ सागरिए। देज वा, अणुपदेज्ज वा, सयंकरणिज्जं ति कट्ट से तमा- घाणा-ऽऽलोग ज्झाए, मच्छिय-डोलाइपाणेसु॥ दाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कट्ट उभओसहकज्जे वा, देसी वीसत्थमाइ गेलन्ने। भूमीए वा ठवेत्ता इमं खलु त्ति आलोएज्जा, णो चेवणं अद्धाणे छन्नासइ, भओवही सावए तेणे॥ सयं पाणिणा परपाणिंसि पच्चाप्पिणेज्जा॥ छन्न-वहणट्ठ मरणे, वासे उज्झक्खणी य कडओ य। __ (आचूला ७/९) उल्लुवहि विरल्लिति व, अंतो बहि कसिण इतरं वा॥ गृहपति अथवा गृहपतिपुत्र की सूई, कैंची, कर्ण (बृभा २३७९-२३८१) शोधनी. नखच्छेदनी हो. उस प्रातिहारिक वस्त की स्वयं चिलिमिलिका के प्रयोग के अनेक प्रयोजन हैंअकेले के लिए याचना कर लाए, उसे परस्पर एक-दूसरे को प्रतिलेखन करते समय द्वार पर चिलिमिलिका के कारण न दे, बार-बार न दे, स्वयं के लिए जो उस वस्तु से करणीय । गृहस्थ उत्कृष्ट उपधि देख नहीं सकता, तब उसके अपहरण है, वह कार्य कर उसे लेकर गृहस्थ के पास जाए, जाकर की चिन्ता नहीं रहती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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