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________________ आगम विषय कोश - २ अपूर्व शब्द करता हुआ आ रहा है। तरक्ष (लकड़बग्घे) भी भयाक्रान्त होकर दौड़ने लगे। चीतों ने तरक्षों से पूछा। उनका उत्तर सुन वे भी भयभीत होकर भागने लगे। एक सिंह मिला। उसने चीतों से पलायन का कारण पूछा। चीतों ने सारी बात कही। सिंह ने सोचा (.....पाणियसद्देण उवाहणाउ णाविब्भलो मुयति ॥ बृभा ३१७५ ११९ विज्ञ व्यक्ति पानी के शब्द मात्र से उपानत् नहीं छोड़ता ।) यथार्थ की खोज करूंगा। उसने सूक्ष्मता से उसे देखा और जान लिया कि यह सियार है। उसे पकड़ा और मार डाला । फिर उसने सबको आश्वस्त कर दिया। इसी प्रकार जो शिष्य उत्सारकल्पिक आचार्य के पास पढ़ते हैं, वे आगमों के कुछेक आलापकों तथा सूत्रस्पर्शिका निर्युक्ति को सीखकर स्वयं को निष्णात मान लेते हैं और प्रायः प्रत्यंत गांव में जाकर गच्छाधिपतित्व कर दूसरों को उत्साहित करते हैं और कहते हैं- हम सूत्र और अर्थ की अव्युच्छित्ति करने वाले हैं। जैसे वन के सियार आदि सभी प्राणी उस घंटासियार के घंटा शब्द को नहीं जानते तथा यह भी नहीं जानते कि यह कौन है ? इसके गले में क्या है ? यह शब्द किसका है ? वैसे ही प्रथम उत्सारित शिष्य कुछ जानता है, सारा नहीं जानता। उसके पास पढ़ने वाला, उत्सारकल्प करने वाला कुछ सूत्र आलापक जान पाता है, अर्थ नहीं ? शिष्य जब आलापकों के विषय में पूछते हैं, तब कहता है - मैं नहीं जाता। तुम योगवहन करो। इस प्रकार के सभी उत्सारकारक और शिष्य नष्ट होते हैं । एक बार उस प्रत्यंत ग्राम में गीतार्थ आचार्य आते हैं और उन्हें उपालंभ देते हैं - तुम लोग सूत्रार्थ की परिपाटिवाचना को त्यागकर सर्वश्रुतधर्म के लिए धूमकेतु के समान उत्सारकल्प का आचरण क्यों कर रहे हो ? इस उपालंभ से प्रेरित हो जो उत्सारकल्पी पुनः उत्सारण न करने का संकल्प करते हैं, उन्हें आचार्य प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं । किन्तु ऐसे गीतार्थ कितने होंगे, जो इस प्रकार सीख दे सकें, अतः उत्सारण करना ही नहीं चाहिए । उत्सारक आचार्य अयोग्य अथवा विवक्षित अनुयोग Jain Education International उत्सारकल्प भूमि को अप्राप्त शिष्यों को श्रुत की वाचना देता है तो उसकी आत्मा इह-परत्र त्यक्त हो जाती है। यहां भी उसे अपयश प्राप्त होता है और परभव में उसे बोधि प्राप्त नहीं होती। जो शिष्य उससे वाचना लेता है, वह भी अल्पज्ञान से गर्विष्ठ होकर अध्ययन छोड़ देता है । पठन के अभाव में चरण-करण का प्रतिपालन कैसे संभव हो सकता है ? ४. उत्सारकल्प के हेतु : ढंढणमुनि आदि दृष्टांत चोयग पुच्छा उस्सारकप्पिओ नत्थि तस्स किह नामं ।" निक्कारणम्मि नामं, पि निच्छिमो इच्छिमो अ कज्जम्मि । उस्सारकप्पियस्स उ, चोयग ! सुण कारणं तं तु ॥ गच्छो अ अलद्धीओ, ओमाणं चेव अणहियासा य । गिहिणो अ मंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उवहिं ॥ हिंडउ गीयसहाओ, सलद्धि अह ते हणंति से लद्धिं । तो एक्कओ वि हिंडइ, आयारुस्सारियसुअत्थो ॥ भिक्खु विह तह वद्दल, अभागधेज्जो जहिं तहिं न पडे । दुग - तिगमाईभेदे, पडड़ तहिं जत्थ सो नत्थि ॥ ननु च किं कोऽपि कस्यापि लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमसमुत्थां लब्धिमुपहन्ति ? येनैवमुच्यते - ते गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपघ्नन्ति इति, अत्रोच्यते - भो भद्र ! किं न कर्णकोटरमुपागतं सुप्रतीतमपि भवतो ढण्ढणमहर्षेरलब्धिस्वरूपम्। (बृभा ७१५, ७३१, ७४०-७४२ वृ) शिष्य ने पूछा- भंते! आपने सूत्रकल्पिक आदि बारह प्रकार के कल्पिकों का वर्णन किया है, उनमें 'उत्सारकल्पिक का उल्लेख नहीं है। ऐसा क्यों ? आचार्य बोले'उत्सारकल्पिक' नाम का कल्पिक नहीं है। शिष्य ने पूछायदि उसका अस्तित्व नहीं है तो फिर उसके नामोल्लेख की क्या आवश्यकता है? यदि नाम है तो वह सार्थक है या निरर्थक ? गुरु ने कहा- हमें निष्कारण नाम भी अभीष्ट नहीं है तो अर्थ की बात ही क्या ? प्रयोजन होने पर हमें उत्सारकल्प नाम और उसका अर्थ- दोनों अभीष्ट हैं । उत्सारकल्प के कारणों को सुनो • किसी आचार्य के गच्छ में कोई भी साधु वस्त्र - पात्र - शय्या के उत्पादन में लब्धिसम्पन्न न हो I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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