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________________ आशातना ३. काल आशातना - काल विपर्यास करना - रात्रि या विकाल के द्वारा बुलाये जाने पर सुनकर भी अनसुना कर देना । ४. भाव आशातना - मिथ्याप्रतिपत्ति- गुरु की बात को स्वीकार नहीं करना, परुष बोलना, बीच में बोलना आदि । आचार्य द्वारा परिषद् में किसी गलत तत्त्व की प्ररूपणा सुनकर शिष्य वहां कुछ न बोले, किन्तु एकांत में वह सही तत्त्व गुरु को बता दे, जो उसने गृहस्थ या मुनिअवस्था में किसी दूसरे से सुना हो अथवा स्वयं ऊहापोहपूर्वक जाना हो। ऐसा करने वाला शिष्य आशातना से बच जाता है। २. आशातना से सम्यक्त्व आदि का नाश गुरुवच्चइया आसायणा तु धम्मस्स मूलछेदो तु । ... गुरुविण करणे कम्मक्खए जो आतो तं सादेति । अहवा गुरुपच्चतितो णाणादिया आयो, तं अविणयदोसेण सादेति न लभतीत्यर्थः । विणओ धम्मस्स मूलं, सो य अविणयजुत्तो तस्स छेदं करेति । अहवा धम्मस्स मूलं सम्मत्तं, गुरुआसादणाए तस्स छेदं करेति । (निभा २६४४ चू) • गुरु का विनय करने से कर्मक्षय होते हैं । विनय से होने वाले लाभ का जो विनाश करती है, वह आशातना है। ० ज्ञान आदि की प्राप्ति में गुरु हेतुभूत होते हैं। गुरु का अविनय करने से उनकी प्राप्ति नहीं होती । विनय धर्म का मूल है। अविनय करने वाला धर्मवृक्ष का उच्छेद करता है । • अथवा धर्म का मूल है सम्यक्त्व । गुरु की आशातना सम्यक्त्व को विच्छिन्न करती है। ३. गुरु की आशातना से ज्ञान आदि की आराधना नहीं ......सो खलु भारियकम्मो, न गणेति गुरुं गुरुट्ठाणे ॥ दंसण - नाण- चरितं तवो य विणओ य होंति गुरुमूले। विणओ गुरुमूले त्ति य, गुरुणं आसायणा तम्हा ॥ सो गुरुमासायंतो, दंसणणाणचरणेसु सयमेव । सीयति कतो आराहणा, से तो ताणि वज्जेज्जा ॥ (दशानि २१, २२, २४) शिष्य गुरु को गुरुस्थानीय नहीं मानता, वह भारीकर्मा ११० होता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। विनय गुरुमूलक होता है, इसलिए जो गुरु की आशातना Jain Education International आगम विषय कोश - २ करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है। जो गुरु की आशातना करता है, वह स्वयमेव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में विषण्ण होता है। वह उन्हें प्राप्त ही नहीं कर पाता है तो उनकी आराधना कैसे कर सकता है ? इसलिए आशातनाओं का वर्जन करना चाहिए। • आशातना कब नहीं ? जाई भणियाइं सुत्ते, ताई तो कुणइ कारणज्जाए । सो न हु भारियकम्मो, गणेती गुरुं गुरुट्ठाणे ॥ कारणे पुण पंथमयाणमाणस्स अचक्खुगस्स वा पुरतो गच्छेज्जा, पडंतस्स विसमे रत्तिं वा जुवलितो गच्छेज्ज, गिलाणस्स वा साणाइभए वा मग्गतो आसन्ने गच्छिज्जा । (दशानि २३ चू) दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की तीसरी दशा में जो आशातनाएं वर्णित हैं, उनको जो शिष्य प्रयोजनवश करता है तथा गुरु को गुरु-स्थान पर मानता है, वह भारीकर्मा नहीं होता। अपेक्षा या प्रयोजन होने पर ( आचार्य या रत्नाधिक मुनि से) आगे चलना आशातना नहीं है। जैसे- जो गुरु आदि मार्ग से अनजान हो या प्रज्ञाचक्षु हो, उसके आगे चलना चाहिए। विषम स्थान में गिरने का भय हो या रात्रि का समय हो, तब साथ-साथ चले। कोई ग्लान हो या श्वान आदि का भय हो तो पीछे या पास-पास चले । द्र श्रीआको १ आशातना * तेतीस आशातना ४. आसायणा के प्रकार आसाणा उदुविहा, मिच्छापडिवज्जणा य लाभे य" (दशानि १५ ) 'आसायणा' (आशातना और आसादना ) के दो प्रकार हैं—मिथ्याप्रतिपत्ति तथा लाभ । • मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूता । तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा तम्हा ॥ (दशानि १९ ) मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् स्वीकार न करना । जो अर्थ जैसे सद्भूत होते हैं, उनको अयथार्थरूप में स्वीकार करना आशातना है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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