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________________ आलोचना १०६ आगम विषय कोश-२ २०. आलोचना विधि के दोष प्रायो न करोति, अनालोचिते चारित्रं मे न शुद्ध्यतीति आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता, जं दिटुंबादरं च सुहुमं वा। सम्यगालोचयति, क्षान्तो गुर्वादिभिः खरपरुषमपि भणितः छण्णं सद्दाउलगं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी॥ सम्यग् प्रतिपद्यते, यदपि च प्रायश्चित्तमारोपितं तत्सम्यग् (व्यभा ५२३) वहति । दान्तः प्रायश्चित्ततप: सम्यक्करोति।"अमायी आलोचना विधि के दस दोष हैं सोऽप्रतिकुञ्चितमालोचयति। अपश्चात्तापी नाम यः १. आकम्प्य-आलोचनार्ह का वैयावृत्त्य करके उनका अनुग्रह पश्चात्परितापं न करोति। किन्त्वेवं मन्यते-कृतपुण्योऽहं प्राप्त कर आलोचना करना। यत्प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवान्। (व्यभा ५२१, ५२२ वृ) २. अनुमान्य-'ये आचार्य मृदु दंड देंगे'-ऐसा सोचकर उनके दस स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना करने के पास आलोचना करना। (अथवा मैं दुर्बल हूं, अतः मुझे कम योग्य होता हैप्रायश्चित्त दें, ऐसा अनुनय कर आलोचना करना।) १. जातिसम्पन्न ६.चारित्रसम्पन्न ३. यदृष्ट-उसी दोष की आलोचना करना, जो आचार्य या २. कुलसम्पन्न ७. क्षान्त अन्य किसी के द्वारा दृष्ट या ज्ञात है। ३. विनयसम्पन्न ८. दान्त ४. बादर-केवल स्थूल दोषों की आलोचना करना। ४. ज्ञानसम्पन्न ९. अमायावी ५. सूक्ष्म-केवल सूक्ष्म दोषों का प्रकाशन करना। ५. दर्शनसम्पन्न १०. अपश्चात्तापी ६. छन्न-प्रच्छन्न रूप से अथवा मंद शब्दों में आलोचना शिष्य ने पूछा-आलोचक में इतने गुणों की अन्वेषणा करना, जिससे आचार्य स्पष्ट रूप में न सुन सकें। क्यों? आचार्य कहते हैं७. शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे ० जातिसम्पन्न मुनि प्रायः अकृत्य नहीं करता। यदि अकृत्य अगीतार्थ मुनि भी सुन ले। हो जाए तो सम्यग् आलोचना कर लेता है। ८. बहुजन-एक के पास आलोचना कर फिर दूसरे के पास कुलसम्पन्न प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यग् निर्वाह करता है! भी आलोचना करना। ० विनयसंपन्न सभी विनय प्रतिपत्तियों का निर्वाह करता है। ९. अव्यक्त-अगीतार्थ के पास आलोचना करना। ० ज्ञानसम्पन्न मुनि श्रुत के अनुसार सम्यग आलोचना करता १०. तत्सेवी-उस आचार्य के पास आलोचना करना, जो है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत के आधार पर मुझे स्वयं दोष का सेवन कर चुका है या सेवन करता है, जिससे प्रायश्चित्त दिया गया है, अत: मेरी शुद्धि हो गई है। अल्प प्रायश्चित्त मिले। ० दर्शनसंपन्न प्रायश्चित्त से शुद्धि में विश्वास करता है। २१. आलोचक की अर्हता ० चारित्रसंपन्न मुनि पुनः अतिचार सेवन नहीं करता। वह आलोएंतो एत्तो, दसहि गुणेहिं तु होति उववेतो। चारित्र की स्खलनाओं की सम्यक् आलोचना करता है। जाति-कुल-विणय-नाणे, दंसण-चरणेहि संपण्णो॥ . क्षान्त मुनि गुरु के खर-परुष संभाषण को भी सम्यग् खंते दंते अमायी य, अपच्छतावी य होति बोधव्वे। स्वीकार करता है। उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का सम्यम् जातिसम्पन्नः प्रायोऽकृत्यं न करोति। अथ कथ- निर्वहन करता है। मपि कृतं तर्हि सम्यगालोचयति। कुलसम्पन्नः प्रतिपन्न- ० दान्त मुनि प्रायश्चित्त-तप का सम्यक् वहन करता है। प्रायश्चित्तनिर्वाहक उपजायते। विनयसम्पन्नो निषद्या- ० अमायी बिना कुछ छिपाए आलोचना स्वीकार करता है। दानादिकं विनयं सर्वं करोति, सम्यगालोचयति। ज्ञान- ० अपश्चात्तापी मुनि आलोचना कर पश्चात्ताप नहीं करता, सम्पन्नः श्रुतानुसारेण सम्यगालोचयति""दर्शनसम्पन्नः किन्तु मानता है कि मैं पुण्यशाली हूं, जो प्रायश्चित्त स्वीकार प्रायश्चित्तात् शुद्धिं श्रद्धत्ते, चरणसम्पन्नः पुनरतिचारं कर विशुद्ध हो गया हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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